१२२ १२२ १२२ १२२
मेरी नाव का बस यही है फ़साना
जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना
सनम को जिताना तो आसान है पर
बड़ा ही कठिन है स्वयं को हराना
न दिल चाहता नाचना तो सुनो जी
था मुश्किल मुझे उँगलियों पर नचाना
बढ़ा ताप दुनिया का पहले ही काफ़ी
न तुम अपने चेहरे से जुल्फ़ें हटाना
कहीं तोड़ लाऊँ न सचमुच सितारे
सनम इश्क़ मेरा न तुम आजमाना
ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी
बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बढ़ा ताप दुनिया का पहले ही काफ़ी
न तुम अपने चेहरे से जुल्फ़ें हटाना------क्या अंदाज़ है वाह्ह्ह
ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी
बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना...शानदार
इस खूबसूरत ग़ज़ल पर दिल से बधाई लीजिये आ० धर्मेन्द्र जी
बढ़ा ताप दुनिया का पहले ही काफ़ी
न तुम अपने चेहरे से जुल्फ़ें हटाना..................वाह क्या बात है धर्मेन्द्र जी ..इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी
बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना...बेहतरीन
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सरिता जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुशील जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय नादिर ख़ान जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सूबे सिंह जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय रामबली जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय आमोद जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर साहब।
लाजवाब लिखा है आपने
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