२१२/२१२/२१२
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वक़्त यूँ आज़माता रहा,
रोज़ ठोकर लगाता रहा.
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साहिलों पर समुन्दर ही ख़ुद,
नाम लिखता,, मिटाता रहा.
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वो मेरे ख़त जलाते रहे,
और मैं दिल जलाता रहा.
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वक़्त कम है, पता था मुझे
रोज़..फिर भी लुटाता रहा.
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डूबती नाव का नाख़ुदा,
बस उम्मीदें बँधाता रहा.
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वो समझते रहे शेर हैं,
धडकनें मैं सुनाता रहा.
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कोई तो प्यास से मर गया,
कोई आँसू बहाता रहा.
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ज़ह’न की थी ख़ताएँ मगर,
बोझ दिल ही उठाता रहा.
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तीरगी उनको रास आ गयी,
मैं भी जुगनू उड़ाता रहा.
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लोग पैसे कमाते रहे,
‘नूर’ रिश्ते कमाता रहा.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
वैसे ...इतनी बुरी तो नहीं थी... खैर ....
शुक्रिया आ. गुप्ता जी .
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