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मेरे सपनों का गाँव

मेरे सपनों में अक्सर ही
आकर मुझे जागता है
गाँव मेरा मुझको फिर यारों
वापस मुझे बुलाता है

वो खलिहानों की पगडंडी
सड़क बन गई काली है
दीपक भी अब नहीं रह गए
लाइट चमक निराली है
जिनके ख़ातिर दूर गया तू
वो सब मुझे दिखाता है
गाँव मेरा ....
मिट्टी के घर नहीं रहे अब
ईंटों के माकान बने
निर्मल निश्चल दिल वाले
अब पत्थर के इंसान बने
दिन प्रति दिन उन पत्थर में
इंसान नज़र ना आता है
गाँव...
हरे भरे तालाब सूखकर खेलों के मैदान बने
कुँवे सूखकर बन्द हुवे हैं बोरिंग की पहचान बने
चरते जहाँ मवेशी थे वो बाग़ नज़र ना आता है
गाँव मेरा ....
ईर्ष्या द्वेष कपट है हावी प्रेम दिलों का ख़त्म हुवॉ
भाई भाई का है दुश्मन मेल मुहब्बत ख़त्म हुवॉ
दूर यहाँ तक भी वो तनहा आम
मुझे समझाता है
गाँव मेरा ...
अमित आज़ाद

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on April 19, 2016 at 10:00pm

आदरणीय गाँवों के बदलते परिवेश को अपने शब्दों में आपने खूब उकेरा है , हार्दिक बधाई। वैसे क्षमा सहित मैं आदरणीय भ्रमर जी टिप्पणी से सहमत हूँ। भ्रमर जी की टिप्पणी के प्रत्युत्तर में भी अशुद्धि प्रतीत हो रही है यथा ''रचना में हुईं (हुई) अशुधियों(अशुद्धियों) के प्रति मै(मैं) छमा(क्षमा) प्रार्थी हूँ। कृपया इसे अन्यथा न लेवें।  हम सब यहां सीखने-सिखाने के लिए हैं।  

Comment by Amit Tripathi Azaad on April 19, 2016 at 5:58pm

आदरणीय सुरेन्द्र जी आपका बहुत  -आभार , रचना में हुईं अशुधियों के प्रति मै छमा प्रार्थी हूँ  

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 19, 2016 at 5:33pm

अमित आजाद जी सुन्दर रचना गाँव का परिदृश्य झलका और बदलाव ..
टाइपिंग में कुछ अशुद्धियाँ सी लगीं थोडा ठीक करें,
जगाता है, मकान , कुंए , हुए हैं , खत्म हुआ ,
भ्रमर ५

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