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बना कर इक बड़ी लाइन कई बीमार बैठे हैं,
उन्हींके साथ में कितने यहां एमआर बैठे हैं।
न जाने सेल को किसकी नज़र ये लग गई यारब,
रिटेलर सब हमारी कोशिशों के पार बैठे हैं ।
ये जितने डाक्टर है सब मुझे जल्लाद लगते है,
मरीजो को दवा क्या दें लिए तलवार बैठे हैं।
मरीजे इश्क हैं सारे इन्हें मतलब नज़ारे से,
लिए आँखों में कब से हसरते दीदार बैठे हैं।
दुपहिया धूप में रक्खा उठा कर चल पड़े थे वो,
बयाँ के बाद की तकलीफ में सरकार बैठे हैं।
हमें खाली लिफ़ाफ़ा वो थमाकर देखिये खुद ही,
वलीमा खा गये कितने कई तैयार बैठे हैं ।
भला क्यों मुफ़्त का हर माल ग़ालिब को लगा अच्छा,
बतायें तो बड़े नक्काद जो हुशियार बैठे हैं ।
चुरा ली जूतियां मेरी किसी ने कल जो हुजरे से,
कसम से मिल वो जाये आज खाये खार बैठे हैं।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बेहद खूब कटाक्ष करती हुई ग़ज़ल आदरणीय....जय हो
गज़ल अच्छी लगी। बधाई।
अच्छे अश’आर हुए हैं आदरणीय रवि शुक्ला जी, दाद कुबूल करें।
आदरणीय रवि सर ..आपकी यह रचना वर्तमान परिदृश्य को एक मंजर की तरह आँखों के आगे उकेर देने में सक्षम है ..आपके हर शेर से मैं इत्तेफाक रखता हूँ कमाल की इस रचना के लिए ह्रदय से बधाई स्वीकार करें सादर
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