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Ravi Shukla's Blog (24)

तरही ग़ज़ल फ़िराक़ साहब के मिसरे पर

थी यही फूल की किस्मत कि बिखर जाना था,

ये कहाँ तय था कि जुल्फों में ठहर जाना था।

मौज ने चाहा जिधर मोड़ दिया कश्ती को,

"मुझको ये भी न था मालूम किधर जाना था"।

जो थे साहिल पे तमाशाई यही कहते थे,

डूबने वाले को अब तक तो उभर जाना था।

बज़्मे अग्यार में है जलवा नुमाई तेरी ,

इस तग़ाफ़ुल पे तेरे मुझको तो मर जाना था।

गर्द हालात की चहरे पे है,लेकिन तुझको,

आईना बन के मैं आया तो सँवर जाना था।

सुब्ह का भूला…

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Added by Ravi Shukla on March 1, 2019 at 4:30pm — 8 Comments

गीत दफ्तर पर

सिस्टम से अब और निभाना मुश्किल है,

आँसू पीकर हँसते जाना मुश्किल है।।

लंबे चौड़े दफ्तर हैं पर छोटी सोच लिए।

भाँग कुएँ में मिली हुई है पानी कौन पिए।

कागज के रेगिस्तानों में भटक रहा,

मृग तृष्णा से प्यास बुझाना मुश्किल है।

भावुकता में मैदां छोड़ूँ क्या होगा।

कोई और यहाँ आकर रुसवा होगा।।

अजगर बन कर पड़ा रहूँ कैसे संभव,

जोंकों को भी खून पिलाना मुश्किल है।

लानत और मलामत का है भार बहुत।

न्याय नहीं निर्णय का शिष्टाचार…

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Added by Ravi Shukla on November 16, 2018 at 9:48pm — 5 Comments

तरही ग़ज़ल : साफ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

2122  1122  1122  22/112

कोई पूछे तो मेरा हाल बताते भी नहीं,

आशनाई का सबब सबसे छुपाते भी नहीं।

शेर कहते हैं बहुत हुस्न की तारीफ़ में हम

पर कभी अपनी ज़बाँ पर उन्हें लाते भी नहीं।

जब भी देते हैं किसी फूल को हँसने की दुआ,

शाख़ से ओस की बूंदों को गिराते भी नहीं।

ये तुम्हारी है अदा या है कोई मजबूरी,

प्यार भी करते हो और उसको जताते भी नहीं।

सिर्फ़ अल्फ़ाज़ से पहचान…

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Added by Ravi Shukla on August 29, 2018 at 4:00pm — 17 Comments

गीत : एक भारत श्रेष्ठ भारत

एक भारत श्रेष्ठ भारत आइये मिलकर बनाएं

देश का  सम्मान गौरव लक्ष्य हासिल कर बढ़ाएं

 

शांति के हम पथ प्रदर्शक ध्वज अहिंसा ले चलेंगे

विश्‍व गुरु बन कर पुन: संस्थापना सच की करेंगे

दें नहीं उपदेश अपने आचरण से  कर दिखाएं

 

धर्म पूजा, जाति भाषा, वेश भूषा, बोलियाँ सब

एकता के सूत्र में बंध कर चली है टोलियाँ सब

संगठन में शक्ति है, ऐसी लिखें फिर से कथाएं

 

रेल का हमको दिखाई दे रहा है पथ समांतर

मूल में इसके छिपा है साथ…

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Added by Ravi Shukla on July 25, 2017 at 11:00am — 8 Comments

तरही ग़ज़ल

221 2121 1221 212



आए वो बज़्म ए शौक में आ कर चले गए,

फ़ित्ना सा एक दिल में उठा कर चले गए।



महफ़िल में आये जलवः दिखा कर चले गए,

जादू सा एक पल में जगा कर चले गए।



आने का और जाने का होता नहीं यकीन,

कुछ लोग इस तरह से भी आकर चले गए।



आँचल सरक के दोश से पहलू में क्या गिरा,

बैठे भी वो नहीं थे लजा कर चले गए।



पुरसान-ए-हाल के लिये यूँ आये मेरे पास

गोया कि एक रस्म निभा कर चले गए



आये वो दर्द बाँटने लेकिन… Continue

Added by Ravi Shukla on July 18, 2017 at 1:53pm — 19 Comments

तरही गजल : फूल जंगल में खिले किन के लिये

2122 2122 212

कार्ड काफी था न लॉगिन के लिए

वो हमे भी ले गए पिन के लिए



चाँद पर जाकर शहद वो खा रहे

आप अब भी रो रहे जिन के लिए



शेर को आता है बस करना शिकार

फूल जंगल में खिले किन के लिए



गुठलियों के दाम भी वो ले गया

उसने शीरीं आम जब गिन के लिये



आ गई अब ब्रेड में बीमारियाँ

जी रहे थे क्या इसी दिन के लिए



आये थे जापान से कल लौट कर

फिर उड़े वो रूस बर्लिन के लिए



पास पप्पू एक दिन हो…

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Added by Ravi Shukla on May 9, 2017 at 11:46am — 27 Comments

तरही गजल : दिन सुहाने हो गये राते सुहीनी हा गईं

2122   2122   2122   212

दिन सुहाने हो गए राते सुहानी हो गईं,

उनके आते ही बहारें जाफ़रानी हो गईं।



रंग और खुशबू की बातें अब कहानी हो गईं,

मुश्किलें लगता है जैसे जाविदानी हो गईं।



आसमाँ ने जब उफ़क पर चूम धरती को लिया,

कमसिनी को छोड़कर ऋतुएं सुहानी हो गईं।



बेकरारी आज जितनी है कभी पहले न थी,

आदतें भी सब्र की जैसे कहानी हो गईं।



मिहनतों को जब मिला तेरा सहारा ए ख़ुदा,

मुश्किलें भी मेरी घट कर दरमियानी हो गईं।



रेत का इक सैल…

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Added by Ravi Shukla on March 31, 2017 at 11:06am — 17 Comments

ग़ज़ल :चुनाव के दिन हैं

1212 1122 1212 22



हमें न ख़्वाब दिखाओ चुनाव के दिन हैं,

अभी तो होश में आओ चुनाव के दिन है ।



बला से कोई बने शाह मुल्क में माना,

तुम अपना फ़र्ज़ निभाओ चुनाव के दिन हैं।



ख़ता मुआफ़ उसूलों को आज रहने दो,

अदू से हाथ मिलाओ चुनाव के दिन हैं।



ये इत्तिहाद मुबारक़ हो ओहदों के लिए,

हिसाब और लगाओ चुनाव के दिन हैं।



गुज़िश्ता पाँच बरस का हिसाब पूछेंगे

कहाँ थे आप बताओ चुनाव के दिन हैं।



सहीह आज ये मौका बदल दो सूरते… Continue

Added by Ravi Shukla on February 13, 2017 at 6:32pm — 18 Comments

ताटंक छंद आधारित गीत

माता तेरा बेटा वापस, ओढ़ तिरंगा आया था।

मातृ भूमि से मैंने अपना, वादा खूब निभाया था।



बरसो पहले घर में मेरी, गूंजी जब किलकारी थी।

माता और पिता ने अपनी हर तकलीफ बिसारी थी

पढ़ लिख कर मुझको भी घर का,बनना एक सहारा था

इकलौता बेटा था सबकी मैं आँखों का तारा था

केसरिया बाना पहना कर ,भेज दिया था सीमा पे

देश प्रेम का जज़्बा देकर ,इक फौलाद बनाया था



सोते सोते प्राण गँवाना, मुझे नहीं भाया यारो

कायर दुश्मन की हरकत पर ,क्रोध बहुत आया यारो

शुद्ध रक्त…

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Added by Ravi Shukla on September 20, 2016 at 8:30pm — 20 Comments

ग़ज़ल : मेरी ग़ज़लों का मंज़र

मेरी ग़ज़लों का मंज़र खुरदुरा है,
शज़र उम्म्मीद का लेकिन हरा है।

बढ़ाओ हाथ हम आज़ाद होंगे,
कलम भी जोश से देखो भरा है।

हमारे शेर में हैं अर्थ कितने,
बज़ाहिर दिख रहा जो इकहरा है।

चटानो को नहीं छूना कि मौसम,
हिदायत दे गया सब भुरभुरा है।

ग़ज़ल पढ़ना सुनाना ठीक है पर,
अगर गाने लगे तो सुर बुरा है।

निरुत्तर कर दिया मुझको ख़ुशी ने,
ग़मो को देख कर मुझ पर मरा है।


मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Ravi Shukla on September 1, 2016 at 12:21pm — 9 Comments

ग़ज़ल

2122 2122 2122 212 

नाम को गर बेच कर व्यापार होना चाहिए

दोस्तों फिर तो हमें अखबार होना चाहिए

आपके भी नाम से अच्छी ग़ज़ल छप जायेगी

सरपरस्ती में बड़ा सालार होना चाहिए

सोचता हूँ मैं अदब का एक सफ़हा खोलकर

रोज़ ही यारो यही इतवार होना चाहिए

क्या कहेंगे शह्र के पाठक हमारे नाम पर

छोड़िये, बस सर्कुलेशन पार होना चाहिए

हम निकट के दूसरे से हर तरह से भिन्न हैं

आंकड़ो का क्या यही मेयार होना…

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Added by Ravi Shukla on June 9, 2016 at 5:00pm — 25 Comments

ग़ज़ल : बना कर इक बड़ी लाइन

1222 1222 1222 1222



बना कर इक बड़ी लाइन कई बीमार बैठे हैं,

उन्हींके साथ में कितने यहां एमआर बैठे हैं।



न जाने सेल को किसकी नज़र ये लग गई यारब,

रिटेलर सब हमारी कोशिशों के पार बैठे हैं ।



ये जितने डाक्टर है सब मुझे जल्लाद लगते है,

मरीजो को दवा क्या दें लिए तलवार बैठे हैं।



मरीजे इश्क हैं सारे इन्हें मतलब नज़ारे से,

लिए आँखों में कब से हसरते दीदार बैठे हैं।



दुपहिया धूप में रक्खा उठा कर चल पड़े थे वो,

बयाँ के बाद की तकलीफ…

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Added by Ravi Shukla on April 21, 2016 at 10:30pm — 16 Comments

ग़ज़ल : नाम को गर बेच कर

2122   2122    2122    212

नाम को गर बेच कर व्यापार होना चाहिए

दोस्तों फिर तो हमें अखबार होना चाहिए



आपके भी नाम से अच्छी ग़ज़ल छप जायेगी

सरपरस्ती में बड़ा सालार होना चाहिए



सोचता हूँ मैं अदब का एक सफ़हा खोलकर

रोज़ ही यारो यही इतवार होना चाहिए



क्या कहेंगे शह्र के पाठक हमारे नाम पर

छोड़िये, बस सर्कुलेशन पार होना चाहिए



हम निकट के दूसरे से हर तरह से भिन्न हैं

आंकड़ो का क्या यही मेयार होना चाहिए



नो निगेटिव न्यूज का मुद्दा…

Continue

Added by Ravi Shukla on March 1, 2016 at 5:44pm — 12 Comments

ग़ज़ल : कहाँ अपना भला मैं

कहाँ अपना भला मैं कर रहा हूँ

ख़ुशी अपनों की हर दम देखता हूँ



इसे जीना कहें तो आप कह लें

गुज़ारे के लिए लड़ता रहा हूँ



ख़यालोँ में बड़ी रानाइयां है

तुम्हें मैं इसलिए भी सोचता हूँ



इरादा आशिकी का था कभी पर

जुनूँ का एक अब मैं सिलसिला हूँ



गुनाहों पर मुझे तस्लीम कब थी

इसी मसले पे मैं सबसे ख़फा हूँ



बनाया है तबीअत से ख़ुदा ने

उसी की मैं इनायत का पता हूँ



मुकम्मल वो ग़ज़ल है इक सुरीली

मैं मुबहम शेर सा तनहा खड़ा… Continue

Added by Ravi Shukla on November 5, 2015 at 7:11pm — 11 Comments

ग़ज़ल : लौट कर जब शाम को मैं घर गया

2122   2122  212

 

लौट कर जब शाम को मैं घर गया ,

निस्‍फ़ दफ़्तर  साथ में लेकर गया ।

 

आंख में देखी थकानों की नदी,

डूब कर उत्‍साह घर का मर गया ।

 

खेंच लो तुम भी तनाबें नींद की ,

चाँद खिड़की से हमें कह कर गया ।

 

बात जो मैं भूलना चाहूं वही ,

ध्‍यान भी उस बात पर अक्‍सर गया ।

 

जब गया तो वो सिंकदर या सखी ,

शान शौकत सब यहीं पर धर गया ।

 

क्‍या बताएं वक्‍़त की मज़बूरियां…

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Added by Ravi Shukla on September 28, 2015 at 6:06pm — 10 Comments

ग़ज़ल : जब कभी तनहाइयों का

2122      2122     2122    212

जब कभी तनहाइयों का आईना मुझको मिला ।

अपने अन्दर आदमी इक दूसरा मुझको मिला ।।

 

हमसुखन वो हमनफ़स वो हमसफ़र हमजाद भी ।

जान लूँ इस चाह में कब आशना मुझको मिला ।।

 

वक्ते रुखसत हाल उसका भी यही था दोस्तों ।

अक्स मेरा चश्मे नम पर कांपता मुझको मिला ।।

 

मंज़िलों से  और बेहतर हसरते मंज़िल लगे ।

लिख सकूं तफसील जिसकी रास्ता मुझको मिला ।।

 

जो बजाते खुद हुआ इल्मो अदब का आफ़ताब…

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Added by Ravi Shukla on September 22, 2015 at 3:20pm — 8 Comments

ग़ज़ल : हुई जो खबर नाम चलने लगा है

हुई जो ख़बर नाम चलने लगा है ।

ये सारा जहां  हमसे जलने लगा है ।।

 

यहां झूठ से सबको नफरत है फिर भी ।

है किसकी ये शह जो मचलने लगा है ।।

न तुम आग उगलो न मै ज़ह्र घोलूं  ।

ये सोचें लहू क्‍यूँ उबलने लगा है ।।

बुरे वक्त में लोग करते है जुर्रत ।

हुई शाम सूरज भी ढलने लगा है ।।

तुम्‍हें देखते ही  हमारी कबा से ।

उदासी का आलम पिघलने लगा है ।।

 

अज़ल से वही है ज़फ़ा का बहाना ।

 कि मौसम के…

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Added by Ravi Shukla on September 15, 2015 at 5:11pm — 26 Comments

ग़ज़ल : जहां था अंधेरा घना जिंदगी का

122 122 122 122

जहॉं था अंधेरा घना जि़दगी का

वहीं से मिला रास्‍ता रोशनी का

 

सलीबें न बदली न बदले मसीहा

वही हाल है आज तक हर सदी का

 

सितारे फलक से न आये उतर कर

हुआ कब ख़सारा किसी आशिकी का

 

न तुम रो सके औ हमारी अना को

सहारा मिला आरज़ी ही खुशी का

समन्‍दर सुख़न के तलाशे बहुत से

ख़जा़ना मिला है तभी शाइरी का

 

पिया है वही जाम जो दे ख़ुदाई

न अहसां उठाया न बदला…

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Added by Ravi Shukla on August 19, 2015 at 3:00pm — 15 Comments

ग़ज़ल : जब तलक हो तुम सलामत

2122       2122    2122    212

जब तलक हो तुम सलामत जिंदगी मेरी रहे

जिस खुशी में तुम रहो खुश वो खुशी मेरी रहे

 

फेर ले रुख चॉंद अपना मै अभी मसरूफ हूँ

वस्‍ल की सारी लताफ़त दिलकशी मेरी रहे

 

खूबसूरत रात है ये खूबसूरत चॉंदनी

चॉंद बेशक हो तुम्‍हारा रोशनी मेरी रहे

 

आशिकी भी है कयामत आबशारे इख्तिलाफ़

राहते जां है वही जो नाखुशी मेरी रहे

 

मैं गलत हूँ या सही ये बात सारी दरगुज़र

चाहती है वो मुझे ये…

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Added by Ravi Shukla on August 11, 2015 at 6:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल : घर चलो अब वक्‍त है आराम का

रंग गहरा हो गया है शाम का ।

घर चलो अब वक्‍त है आराम का ।।

आज उनको याद मेरी आ गई ।

कल तलक मैं था नहीं कुछ काम का ।।

घर चलो दहलीज़ होगी मुन्तजि़र ।

फि़क्र में गुज़रे न वक्फा़ शाम का ।।

खो न जाना इन नज़ारों में कहीं ।              

ये फुसूं है चर्खे  नीली फ़ाम का ।।

जब पड़ा था काम उनको याद था ।

अब पडा़ हूं जब नहीं  कुछ काम का ।।

 

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by Ravi Shukla on August 10, 2015 at 6:00pm — 9 Comments

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