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कभी कोई मुफलिस कहां बोलता है ।
जो बोले तो फिर आसमां बोलता है ।।
ज़माना नहीं, पासबां बोलता है ।
हुआ कौन उसका, मकां बोलता है ।।
अभी लोग उठकर रवाना हुए हैं ।
ये चूल्हों से उठता धुआं बोलता है ।।
अगर आंच गैरत पे आये तो बोले ।
वगरना कहां बेजुबां बोलता है ।।
दिलासा नहीं काम दे दो मुझे तुम ।
यही बात बोले जहां बोलता है ।।
जमीं उसकी दहकान से छीन ली फिर ।
करो खुदकशी हुक्मरां बोलता है ।।
यहाँ क्या रहा साथ क्या ले चले हम ।
कफन देख सूदों जियां बोलता है ।।
मजा मंजिलों में नहीं है मुसाफिर ।
सफर दर सफर कारवां बोलता है ।।
किताबों का हर फलसफा है किताबी ।
इबादत से हासिल निशां बोलता है ।।
मौलिक एवं अप्रकाशित
आरणीय गुणीजन ये ग़ज़ल ओ बी ओ का सदस्य बनने से पूर्व कही थी अब ओ बी अो के विशाल सागर से अपनी सामर्थ्य भर ग्रगहण करने के बाद इसे देखते है तो कई जगह इसमें मात्रा गिरा कर पढ़नी पड़ रही है । आप कृपया सुधार हेतु मार्ग दर्शन दें और ये भी बताये कि क्या ये ग़ज़ल विधा की रचना कही जा सकती है
Comment
आदरणीय सौरभ जी
आपकी ग़ज़ल पर उपस्थिति और आश्वस्त करने वाली टिप्पणी से सच जानिये बहुत खुशी हुई है । प्रयास सार्थक हुआ । आपका बहुत बहुत आभार ।आपके आर्शीवाद को आज देख सके विलंब हेतु क्षमा ।
एक अच्छी कोशिश के लिए दिली दाद कुबूल कीजिये आदरणीय रवि शुक्लजी.
किताबों का हर फलसफा है किताबी ।
इबादत से हासिल निशां बोलता है ।।
इस शेर के सानी ने वो कुछ कहा है जिसे कहने में एक पूरा उपन्यास छोटा पड़ जाय. आपकी नज़र पैनी है, शब्द-संग्रह समुचित है तथा अंदाज़ अदब के हिसाब से है. आपसे बहुत कुछ सुनने की आश्वस्ति बन रही है भाई.
शुभकामनाएँ
आ. रवि भाई , अब मतला सही है , और गज़ल भी । पुनः बधाई आपको ।
आदरणीय रवि जी ..कमाल के शेर हैं ..हर शेर के लिए दाद क़ुबूल करें
आदरणीय मिथिलेश जी
शेर दर शेर तफसील से दी गई आपकी दाद का शुक्रिया
घर से दफ्तर तक के आठ किलोमीटर के फासले में कभी कभी कुछ दृश्य दिखाई दे जाते है उनको भी कहने की कभी कभी कोशिश हो जाती है वही चित्र आपको भी शेर में नज़र आ गया हमारा शेर कहना सार्थक हो गया है । अनुग्रह बनाये रखें । आपका आभार ।
आदरणीय कृष्ण मिश्र जी ग़ज़ल पसंद आई इसके लिये आभार आपका
मजा मंजिलों में नहीं है मुसाफिर ।
सफर दर सफर कारवां बोलता है ।। वाह! वाह!
बहुत सुन्दर गज़ल हुयी है आदरणीय! हार्दिक बधाई!
आदरणीय रवि जी, बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है. गुनगुनाने में आनंद आ गया. कुछ संशोधनों के बाद तो कमाल की ग़ज़ल निकल आई है. कुछ अशआर ने तो मुग्ध कर दिया है. इस शानदार ग़ज़ल पर शेर दर शेर दाद हाज़िर है-
कभी कोई मुफलिस कहां बोलता है ।
जो बोले तो फिर आसमां बोलता है ।।................. शानदार मतला हुआ है
ज़माना नहीं, पासबां बोलता है ।
हुआ कौन उसका, मकां बोलता है ।।................. बेहतरीन हुस्ने-मतला हुआ है
अभी लोग उठकर रवाना हुए हैं ।
ये चूल्हों से उठता धुआं बोलता है ।।............. वाह वाह वाह दिल लूट लिया इस शेर ने .... क्या चित्र खींचा है.
अगर आंच गैरत पे आये तो बोले ।
वगरना कहां बेजुबां बोलता है ।।............ शानदार शेर .... दिल से दाद हाज़िर है
दिलासा नहीं काम दे दो मुझे तुम ।
यही बात बोले जहां बोलता है ।।....................शेर हुआ हुआ सा लग रहा है.
जमीं उसकी दहकान से छीन ली फिर ।
करो खुदकशी हुक्मरां बोलता है ।।.............. बढ़िया शेर
यहाँ क्या रहा साथ क्या ले चले हम ।
कफन देख सूदों जियां बोलता है ।।......................वाह वाह बहुत बढ़िया शेर हुआ है.
मजा मंजिलों में नहीं है मुसाफिर ।
सफर दर सफर कारवां बोलता है ।।..........बहुत ही गहन विचार के बाद ये शेर हुआ है.... वाह वाह
किताबों का हर फलसफा है किताबी ।
इबादत से हासिल निशां बोलता है ।।.......... बढ़िया शेर
वाह वाह .... दिल-जीतू ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई
बहुत सुन्दर गजल हुयी है।
आदरणीय गिरीराज जी
इस में कुछ इस तरह संशोधन किया है बतायें कैसा है
ज़माना नहीं, पासबां बोलता है
हुआ कौन उसका, मकां बोलता है
कभी कोई मुफलिस कहां बोलता है ।
जो बोले तो फिर आसमां बोलता है ।।
दिलासा नहीं काम दे दो मुझे तुम
यही बात बोले जहां बोलता है
ज़रा सी लेकिन गंभीर त्रुटि से पूरी ग़जल खारिज हो रही थी
आपका बहुत बहुत आभार ।
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