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ग़ज़ल : घर चलो अब वक्‍त है आराम का

रंग गहरा हो गया है शाम का ।

घर चलो अब वक्‍त है आराम का ।।

आज उनको याद मेरी आ गई ।

कल तलक मैं था नहीं कुछ काम का ।।

घर चलो दहलीज़ होगी मुन्तजि़र ।

फि़क्र में गुज़रे न वक्फा़ शाम का ।।

खो न जाना इन नज़ारों में कहीं ।              

ये फुसूं है चर्खे  नीली फ़ाम का ।।

जब पड़ा था काम उनको याद था ।

अब पडा़ हूं जब नहीं  कुछ काम का ।।

 

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 12, 2015 at 7:56pm

इतनी अच्छी अच्छी गजल पढने को मिल रही है ...मन बाग़ बाग़ हो जाता है मैं पूरे मन से प्रयास नहीं करता इसलिए नहीं लिख पाता हूँ ...शायद कभी लिख पाऊँ! बस आपको हार्दिक बधाई!

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 12, 2015 at 11:16am

आ0 भाई रवि जी,  इस बेहतरीन ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई .

Comment by Ravi Shukla on August 11, 2015 at 5:55pm

आदरणीय गिरिराज जी बहुत खूब

इस्‍लाह का शुक्रिया इसी लिये तो रचना यहां रखते है कि जो कुछ हमसे छूट गया है

उसे आप विद्वतजन बतायें ।

आभार अादरणीय । मूल आलेख में हमने सुधार कर लिया है ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 11, 2015 at 2:43pm

घर चलो दहलीज़ होगी मुन्तजि़र ।

फि़क्र में गुज़रे न वक्फा़ शाम का ।।   बहुत खूब , आदरनीय रवि भाई , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।

अंतिम शे र मे  सानी मिसरा मे  गो  के बदले मे जब कैसा रहेगा ?

Comment by Pawan Kumar on August 11, 2015 at 2:41pm

आज उनको याद मेरी आ गई ।

कल तलक मैं था नहीं कुछ काम का ।।

आजकल तो इसका चलन हो गया है
आदरणीय, सुन्दर गजल पर हार्दिक बधाई!

Comment by Ravi Shukla on August 11, 2015 at 1:58pm

आरणीय मिथिलेश जी , आदरणीय हर्ष जी और आदरणीया तनुजा जी आप सब की ग़ज़ल पर शिर्कत से हौसला बढ़ा है । अनुग्रह बनाये रखे । आभार ।

Comment by Tanuja Upreti on August 11, 2015 at 1:07pm

जब पड़ा था काम उनको याद था ।

अब पडा़ हूं गो नहीं  कुछ काम का ।

वाह इन पंक्तियों का क्या कहना रवि जी 

Comment by Harash Mahajan on August 11, 2015 at 8:53am
आ0 रवि शुक्ला जी इस बेहतरीन ग़ज़ल पर दिली दाद । साभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 11:06pm

आदरणीय रवि जी शानदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 

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