रंग गहरा हो गया है शाम का ।
घर चलो अब वक्त है आराम का ।।
आज उनको याद मेरी आ गई ।
कल तलक मैं था नहीं कुछ काम का ।।
घर चलो दहलीज़ होगी मुन्तजि़र ।
फि़क्र में गुज़रे न वक्फा़ शाम का ।।
खो न जाना इन नज़ारों में कहीं ।
ये फुसूं है चर्खे नीली फ़ाम का ।।
जब पड़ा था काम उनको याद था ।
अब पडा़ हूं जब नहीं कुछ काम का ।।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
इतनी अच्छी अच्छी गजल पढने को मिल रही है ...मन बाग़ बाग़ हो जाता है मैं पूरे मन से प्रयास नहीं करता इसलिए नहीं लिख पाता हूँ ...शायद कभी लिख पाऊँ! बस आपको हार्दिक बधाई!
आ0 भाई रवि जी, इस बेहतरीन ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई .
आदरणीय गिरिराज जी बहुत खूब
इस्लाह का शुक्रिया इसी लिये तो रचना यहां रखते है कि जो कुछ हमसे छूट गया है
उसे आप विद्वतजन बतायें ।
आभार अादरणीय । मूल आलेख में हमने सुधार कर लिया है ।
घर चलो दहलीज़ होगी मुन्तजि़र ।
फि़क्र में गुज़रे न वक्फा़ शाम का ।। बहुत खूब , आदरनीय रवि भाई , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।
अंतिम शे र मे सानी मिसरा मे गो के बदले मे जब कैसा रहेगा ?
आज उनको याद मेरी आ गई ।
कल तलक मैं था नहीं कुछ काम का ।।
आजकल तो इसका चलन हो गया है
आदरणीय, सुन्दर गजल पर हार्दिक बधाई!
आरणीय मिथिलेश जी , आदरणीय हर्ष जी और आदरणीया तनुजा जी आप सब की ग़ज़ल पर शिर्कत से हौसला बढ़ा है । अनुग्रह बनाये रखे । आभार ।
जब पड़ा था काम उनको याद था ।
अब पडा़ हूं गो नहीं कुछ काम का ।
वाह इन पंक्तियों का क्या कहना रवि जी
आदरणीय रवि जी शानदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं
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