सिस्टम से अब और निभाना मुश्किल है,
आँसू पीकर हँसते जाना मुश्किल है।।
लंबे चौड़े दफ्तर हैं पर छोटी सोच लिए।
भाँग कुएँ में मिली हुई है पानी कौन पिए।
कागज के रेगिस्तानों में भटक रहा,
मृग तृष्णा से प्यास बुझाना मुश्किल है।
भावुकता में मैदां छोड़ूँ क्या होगा।
कोई और यहाँ आकर रुसवा होगा।।
अजगर बन कर पड़ा रहूँ कैसे संभव,
जोंकों को भी खून पिलाना मुश्किल है।
लानत और मलामत का है भार बहुत।
न्याय नहीं निर्णय का शिष्टाचार बहुत।।
और शराफत को कायरता समझें जो,
उनके आगे शोर मचाना मुश्किल है।
नरभक्षी माहौल चेतना चाट रहा।
जैसे तैसे बाकी सेवा काट रहा।।
काश कर्म में उत्सव जैसी ख़ुशी मिले,
जैसे तैसे जीते जाना मुश्किल है।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत अच्छी व्यंग धार है इस गीत में ... प्रभावी विश्लेषण ...
बधाई हो इस गीत की ...
आ. भाई रवि जी, प्रभावी गीत हुआ है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय रवि जी, दफ़्तरी संत्रास पर इस प्रभावी गीत-प्रस्तुति के लिए, हार्दिक बधाई.
एक विवश कर्मचारी की ऊबी हुई छटपटाती सोच को जिस संवेदनशीलता के साथ शाब्दिक किया गया है कि प्रस्तुत रचना आजके दौर के हरेक कर्मठ, ईमानदार और उत्तरदायी कर्मचारी की आवाज़ बन कर सामने आयी है. इस अत्यंत सार्थक रचना के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ
आदरणीय समर साहब की सलाह उचित है. कृपया एकबार अपनी सुधी दृष्टि डाल कर उपयुक्त सुधार कीजिएगा, आदरणीय रवि शुक्ल जी.
सादर
जनाब रवि शुक्ला साहिब आदाब,गीत का प्रयास अच्छा है बधाई स्वीकार करें ।
' लंबे चौड़े दफ्तर हैं पर छोटी सोच लिए।
भाँग कुएँ में मिली हुई है पानी कौन पिए'
ये पंक्तियां गीत की दूसरी पंक्तियों के हिसाब से बह्र से भटक गई हैं,देखिये ।
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