2122 2122 2122 212
जब कभी तनहाइयों का आईना मुझको मिला ।
अपने अन्दर आदमी इक दूसरा मुझको मिला ।।
हमसुखन वो हमनफ़स वो हमसफ़र हमजाद भी ।
जान लूँ इस चाह में कब आशना मुझको मिला ।।
वक्ते रुखसत हाल उसका भी यही था दोस्तों ।
अक्स मेरा चश्मे नम पर कांपता मुझको मिला ।।
मंज़िलों से और बेहतर हसरते मंज़िल लगे ।
लिख सकूं तफसील जिसकी रास्ता मुझको मिला ।।
जो बजाते खुद हुआ इल्मो अदब का आफ़ताब ।
रौज़नो से कैद की वो झांकता मुझको मिला ।।
मौलिक एवं अप्राशित
Comment
अति सुन्दर . बढ़िया ग़ज़ल .मुबारकबाद !!
बहुत सुन्दर गजल। ढेरों दाद कुबूल करें। सादर |
आदरणीय रवि जी, यकीनन यह भूलवश हुआ है. बाकी निर्णय आदरणीय प्रधान संपादक महोदय ही लेंगे. आपकी सदाशयता के लिए आभार.
आदरणीय मिथिलेश जी
सर्व प्रथम जो भूल हमसे हई उसके लिये खेद है स्मरण नही रहा कि आरंभिक दौर में कही गई गज़ल पहले हम आरकुट पर दे चुके है पुरानी गजलों को जिन्हे कभी गज़ल कह लेते थे उन्हें अब सीखे हुए ज्ञान से सुधार कर देखने ( ताकबुले रदीफ दोष के कारण बदनना ) और आप लोगो से साझा करने के उत्साह मे ही ये त्रुटि हुई है । पुन: इसके लिये खेद व्यक्त करते हुए निवेदन है कि इसे तुरंत प्रभाव से हटा दिया जाए । इससे अधिक इस पर हम और कुछ कहने की स्थिति में नहीं है । सादर ।
आदरणीय रवि जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. बधाई. लेकिन ये पुरानी ग़ज़ल है जिसमें आपने केवल एक मिसरे-"मंज़िलों से और बेहतर हासिले मंज़िल लगा ' को बदल कर "मंज़िलों से और बेहतर हसरते मंज़िल लगे " किया है. ये ग़ज़ल ऑरकुट के 'Hindi Sahitya Sabha' फोरम में 2010 में ही आप प्रकाशित कर चुके है. अतः यह ग़ज़ल अप्रकाशित नहीं है.
http://orkut.google.com/c119731-tb9f61279f5608a63.html
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सादर
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