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फाईलातुन फाईलातुन फाईलातुन मफऊलात
कट गए जंगल सभी कैसे रहे विवरों में नाग
इसलिए सब भाग कर अब आ गए नगरों में नाग
चारपाई पर नहीं चढ़ते थे जो पहले कभी
अब वही बेख़ौफ़ होकर घूमते शहरों में नाग
अब बचाकर जान देखो भागता है आदमी
फन उठाये मिल रहे हैं हर कही डगरों में नाग
हो सके तो बाज आओ प्यार से इनके बचो
कौन जाने दंश दें कब झूमकर अधरों में नाग
फोबिया इन मणिधरों का इस तरह तारी हुआ
रात-दिन हैं छा रहे ‘गोपाल ‘ की नजरों में नाग
संदलों की महक इनको अब मयस्सर है कहाँ
ढूंढते खुशबू मलय की रूप के गजरों में नाग
दूध पीते थे कभी यह बात है देखी हुयी
खून पीकर आदमी का छा गए ख़बरों में नाग
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आ० मिथिलेश जी
आपने मुझे बदेसंकत से उबार लिया क्योंकि मैं इस गजल को बेबहर समझ रहा था . मुझे मिसरे में अतिरिक्त मात्र लेने की छूट का पता नहीं था . आपने बहर सही कर मेरी सारी दुविधा दूर कर दी . अब मुझे गजल मीटर पर लग रही है . आपका आभार . सादर
आदरणीय गोपाल सर, ग़ज़ल की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. आपने ग़ज़ल का वज़्न गलत लिखा है. सही वज़्न है -
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फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
और रदीफ़ के नाग में ग़ की एक मात्रा अतिरिक्त है. ग़ज़ल के मिसरों में एक अतिरिक्त मात्रा लेने की छूट होती है.
यह बह्र गीतिका छंद के समान ही है बस बह्र में मात्रा गिराने की छूट होती है छंद में नहीं. सादर
हो सके तो बाज आओ प्यार से इनके बचो
कौन जाने दंश दें कब झूमकर अधरों में नाग
बहुत सुन्दर सीख , भाव और गजल ....
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