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2 1 2 2     2 1 2 2   2 1 2 2   2 2 2 1 

 फाईलातुन फाईलातुन फाईलातुन मफऊलात

 

कट गए  जंगल सभी  कैसे रहे  विवरों  में नाग

इसलिए सब भाग कर अब आ गए नगरों में नाग

 

चारपाई  पर  नहीं  चढ़ते  थे  जो  पहले  कभी

अब  वही  बेख़ौफ़  होकर  घूमते  शहरों में नाग

 

अब  बचाकर  जान  देखो  भागता  है  आदमी  

फन उठाये  मिल रहे हैं हर कही डगरों  में नाग

 

 हो  सके तो  बाज  आओ  प्यार से  इनके बचो

कौन जाने दंश दें  कब  झूमकर  अधरों में नाग 

 

फोबिया  इन  मणिधरों का इस तरह तारी हुआ

रात-दिन हैं छा रहे  ‘गोपाल ‘ की नजरों में नाग

 

संदलों की  महक इनको  अब मयस्सर है कहाँ

ढूंढते खुशबू  मलय की  रूप के  गजरों में नाग

 

दूध  पीते  थे  कभी  यह  बात  है  देखी  हुयी 

खून पीकर आदमी का  छा गए  ख़बरों  में नाग

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 14, 2016 at 10:59am

आ०  मिथिलेश जी 

आपने मुझे बदेसंकत से उबार लिया  क्योंकि मैं  इस गजल को बेबहर समझ रहा था . मुझे मिसरे में अतिरिक्त  मात्र लेने की छूट का पता नहीं था . आपने बहर सही कर मेरी सारी दुविधा दूर कर दी . अब मुझे गजल मीटर पर लग रही है . आपका आभार . सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 11, 2016 at 2:39pm

आदरणीय गोपाल सर, ग़ज़ल की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. आपने ग़ज़ल का वज़्न गलत लिखा है. सही वज़्न है -

2 1 2 2     2 1 2 2   2 1 2 2   2 1 2 

 फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन

और रदीफ़ के नाग में ग़ की एक मात्रा अतिरिक्त है. ग़ज़ल के मिसरों में एक अतिरिक्त मात्रा लेने की छूट होती है.

यह बह्र गीतिका छंद के समान ही है बस बह्र में मात्रा गिराने की छूट होती है छंद में नहीं. सादर 

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 11, 2016 at 1:44pm

हो  सके तो  बाज  आओ  प्यार से  इनके बचो

कौन जाने दंश दें  कब  झूमकर  अधरों में नाग 

बहुत सुन्दर सीख , भाव और गजल ....

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