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सदा सुन के ज़मीं की, चाँद तारे छोड़ आया हूँ (ग़ज़ल)

1222 1222 1222 1222

फ़लक पर के सभी दिलकश नज़ारे छोड़ आया हूँ
सदा सुन के ज़मीं की, चाँद-तारे छोड़ आया हूँ

मैं अपने बोरिये-बिस्तर शहर ले के तो आया, पर
वो पनघट,बाग़,पोखर,खेत...सारे छोड़ आया हूँ

जहाँ अपनी वफ़ा का मुस्कुराता एक गुलशन था
वहीं अश्कों के कुछ तालाब खारे छोड़ आया हूँ

वज़ूद उसका न मिट जाए कहीं दरिया के दलदल में
तड़पती मीन को सागर किनारे छोड़ आया हूँ

पिछड़ जाए न बेटा रेस में, ज्यों गोद से उतरा
उसे हॉस्टल प्रतिस्पर्धा के मारे छोड़ आया हूँ

भगीरथ स्वर्ग में ये सोचकर बस हाथ मलते हैं
मेरी गंगा, तुझे किसके सहारे छोड़ आया हूँ

जली रोटी जो खाई, श्रीमती जी खूब याद आईं
उन्हें मयके बिना सोचे-विचारे छोड़ आया हूँ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 15, 2016 at 8:16pm

बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल आदरणीय वाह क्या कहने 

Comment by जयनित कुमार मेहता on May 12, 2016 at 7:34pm
आदरणीय अनुज जी,आपकी बात से सहमत हूँ। बहुत-बहुत धन्यवाद।। :-)
Comment by जयनित कुमार मेहता on May 12, 2016 at 7:31pm
आदरणीय सुशील जी, ग़ज़ल पर उपस्थिति और हौसला आफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आपका।
Comment by Anuj on May 12, 2016 at 3:35pm

जली रोटी जो खाई, श्रीमती जी खूब याद आईं
उन्हें मयके बिना सोचे-विचारे छोड़ आया हूँ

आदरणीय जयनित जी,

इन रोटियों का जयका ही कुछ और है !

Comment by Sushil Sarna on May 12, 2016 at 2:01pm

फ़लक पर के सभी दिलकश नज़ारे छोड़ आया हूँ

सदा सुन के ज़मीं की, चाँद-तारे छोड़ आया हूँ

वाह जयनित जी वाह बहुत ही दिलकश अशआर कहे हैं आपने। इस सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

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