अंधेरे में रोशनी,
जीवन का सहारा ।
शाम को बिछड़ती,
जब सुबह निहारा ।
इधर जब पौ फटी,
तो देखो लो नजारा।
क्या जानवर, पक्षी,
सब दिखे बे सहारा।
कोई रहम न करता ,
क्या कानून निराला ।
भूखे इंसान की रोटी,
बेटी हजम कर डाला।
रोशनी की आस दिखती,
परंपरा का डर दे डाला ।
तन मन पर हजारों पीड़ा,
सहन करके भी जी लेता ।
अपनों का पेट भरता ,
अतीत को भूल जाता ।
मानवता को कलंकित ,
करने से नहीं चूकता ।
जहाँ में अज्ञान फैलाता,
सदा भय आतंक दिखाता ।
आपस में सबको लड़ाता,
कमाई सारी हड़प जाता ।
जग में ज्ञान की रोशनी,
अपनों के पास ही रखता ।
धर्म जाति का ले सहारा,
ज्ञान का दीप बुझा डाला ।
बाँट कर समाज हमारा ,
उल्लू सीधा कर डाला।
जागो खोलो आँखें अपनी,
धरा को ज्ञान से रोशन ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
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