ग़ज़ल ( आँखों से निकलते हैं )
१२२२ -१२२२ -१२२२ -१२२२
तड़प कर जो गमे जाने जहाँ दिल में पिघलते हैं ।
वही तो अश्क बन कर मेरी आँखों से निकलते हैं ।
क़यादत पर मेरी यह सोच के उंगली उठाना तुम
मेरे पीछे ही अपनों की तरह अग्यार चलते हैं ।
अगर देना नहीं था साथ तो पहले बता देते
अचानक कबले मंज़िल किस लिए रस्ता बदलते हैं ।
मुहब्बत करने वालों को है कब परवाह दुनिया की
जहाँ भी शमआ जलती है वहां परवाने जलते हैं ।
जो खारों की हिमायत करने को आये हैं गुलशन में
सुना है अपने पैरों से वो फूलों को मसलते हैं ।
ज़माना जानता है यह मुहम जारी है मुद्दत से
लगायी जाती है ठोकर हमें जब भी संभलते हैं ।
गुमा होता है वह तस्दीक बदजन हो गए मुझ से
न यूँ ही बज़्म में अरबाब खुश हो कर उछलते हैं ।
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
मोहतरमा राहिला साहिबा , हौसला अफ़ज़ाई का तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया
जनाब पवन कुमार साहिब , हौसला अफ़ज़ाई का तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया
मोहतरम जनाब सुशील सरना साहिब , हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया
ज़माना जानता है यह मुहम जारी है मुद्दत से
लगायी जाती है ठोकर हमें जब भी संभलते हैं ।
बहुत खुब, एक एक पंक्ति लाजवाब है!
हार्दिक बधाई
मुहब्बत करने वालों को है कब परवाह दुनिया की
जहाँ भी शमआ जलती है वहां परवाने जलते हैं ।
वाह बहुत खूब आदरणीय तस्दीक साहिब ... बड़े ही दिलकश अशआर लिखे हैं आपने। इस मनमोहक ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
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