2122 2122 2122
जब हवायें चल रहीं हैं क्यों घुटन है
सूर्य है उजला तो क्यों काला गगन है
कल बहुत उछला था अपनी जीत पर जो
आज क्यों हारा हुआ बोझिल सा मन है
चिन्ह घावों का नहीं है पीठ पर अब
पर हृदय में आज भी जीती चुभन है
मन ललक कर आँखों को उकसा रहा था
कह रहा संसार पर दोषी नयन है
सत्य तर्कों में समाया है भला कब ?
तर्क झूठों को बचाने का जतन है
क्या हृदय-मन, सोच जीती है कहीं पर
या कि जीता आ रहा जो , सिर्फ तन है
गालियाँ पारस सी होने लग गयीं क्या ?
जिसपे बरसी आज वो चमका रतन है
सिद्धि को सर पर उठाने की ललक में
आज गाली खा रहा हर आचमन है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीय अनुज भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीया राजेश जी , आपकी उपस्थिति और सराहना से ग़ज़ल सार्थक हुई , आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय बृजेश भाई , आपका तहेदिल से शुक्रिया ।
आदरणीय सुशील सरना भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीय राजेन्द्र भाई, सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरनीय समर भाई , हौसला अफज़ाई का तहेदिल से शुक्रिया आपका । आपकी सलाह सही है ' वो ' ज़ियादा सही है , मै अपनी कापी मे सुधार लिया हूँ , आपका आभार ।
क्या हृदय-मन, सोच जीती है कहीं पर
या कि जीता आ रहा जो , सिर्फ तन है
गालियाँ पारस सी होने लग गयीं क्या ?
जिसपे बरसी आज वो चमका रतन है
आदरणीय गिरिराज जी आपके शेरों में एक खास तरह की बौद्धिकता और व्यंगात्मकता भी है जो अलग से आकृष्ट करती है. बधाईयाँ .
चिन्ह घावों का नहीं है पीठ पर अब
पर हृदय में आज भी जीती चुभन है
मन ललक कर आँखों को उकसा रहा था
कह रहा संसार पर दोषी नयन है
वाह वाह आ० गिरिराज जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई हार्दिक बधाई |
वाह आदरणीय बहुत ही शानदार ह्रदयस्पर्शी ग़ज़ल कही है
चिन्ह घावों का नहीं है पीठ पर अब
पर हृदय में आज भी जीती चुभन है
वाह आदरणीय गिरिराज जी वाह दिल को छूती इस ग़ज़ल के हर शेर पर दाद कबूल फरमाएं सर।
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