"सुनो , कुछ कहना है " बड़ी हिम्मत करके पति की तरफ देखा उसने ।
" क्या हुआ अब , आज फिर माँ से कहा-सुनी हो गई है क्या ?" उन्होंने पूछा ।
" अरे नहीं , माँ से कुछ नहीं हुआ । बात दीपू की है " उसने तीखे स्वर में कहा ।
" अब उसने क्या कर दिया "
" वो ..."
" वो क्या , अरे बताओ भी , किसी से सिर फुट्व्वल करके तो नहीं आया है " उन्होंने तमतमाये चेहरे से पूछा ।
" कैसी बात करते है आप , अपना दीपू वैसा नहीं है " वह एकदम से कह उठी ।
" तो कैसा है , अब तुम्हीं बता दो ? "
" उसकी एक गर्ल फ्रेंड है , आज ही मुझे पता चला है "
" तुम्हारा दिमाग तो सही है , मालूम भी है क्या कह रही हो । वो बहुत छोटा है इन सबके लिए "
" उतना छोटा भी नहीं है । दसवीं का परीक्षा दिया है उसने "
" अच्छा , क्या वो स्पेशल फ्रेंड है ?"
" हाँ , इसलिए तो चिंतित हूँ "
"हम्म , चिंता का विषय तो है । इस बात में दीपू को आगे बढ़ने के लिए प्रश्रय नहीं दिया जा सकता है । "
" तो क्या आप उसके साथ .... " उस स्वर के आतंक से वह चौंक उठी ।
" कल सुबह बात करता हूँ उससे ।" सुनते ही सुबह होने और आने वाले निर्णय के क्षण की अनिश्चितता से उसके अंदर चटाख - चटाख सा कुछ टूट रहा था ।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
कथा पर उपस्थिति और सराहना के लिए ह्रदय से आभार आपको आदरणीय डॉ आशुतोष जी
आदरणीय गिरिराज जी , बिलकुल सही पकडे है आप . माँ चरित्र अक्सर ऐसी ही होती है . हाट-बाज़ार , दाल-चावल ,रिश्ते-नातेदारी के लेन-देन तक सभी फैसले स्वयं ही लेती रहती है अक्सर . लेकिन जब भी कोई बड़ी दुश्चिंता वाली बात हो तो पति ही याद आते है उस वक्त . सच कहें तो ये परिस्थिति आज के सन्दर्भ में बहुत बड़ी चिंता का विषय है . कैसे क्या किस तरह से इसे सुलझाया जाए . एक माँ होने के नाते मैं स्वयं भी दुविधा में हूँ .,इसलिए पिता ही आसान लगे इसके लिए :))))
विडिओगेम और कार्टून करेक्टर के संग पलते बढ़ाते बच्चे जिद्दी व आत्मकेंद्रित से होते जा रहे है . सुख साधनों का सहजता से प्राप्त होना एक ही प्रकार का मनोवृत्ति उभर कर आ रही है . पाश्चात्य संस्कार हमारी जड़ों को खोखली करने पर उतारू है .इन्हीं विसन्गतियो से निकलकर ये कथा हमारे सामने आई है .अब माँ या पिता कैसे अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करे ऐसे में , ये चिंता का विषय तो है ही . अच्छा लगा कथ्य पर आपकी विवेचना . ह्रदय से आभार आपको
तहेदिल आभार आपको आदरणीय तेजवीर जी कथा को पसंद करने के लिए
जी , सही कह रहे है आप आदरणीय शहजाद जी , रचना की बेहतरी की गुंजाइश हमेशा बनी ही रहती है क्योकि कोई भी रचना मुकम्मल नहीं होती है . अगर कुछ नई चीज ध्यान में आते ही इसको बेहतर करने की कोशिश करुँगी . उचित मार्गदर्शन के लिए दिल से आभार आपको
आपकी उपस्थिति और लघुकथा को पसंद करने के लिए ह्रदय से आभार आपको आदरणीय सुशील सरना जी
कथा का मर्म पकड़ते हुए रचना की सराहना मन को भा गया आदरणीया राहिला जी , ह्रदय से आभार आपको
आदरणीया राजेश कुमारी जी ,कथा पर आपकी उपस्थिति मेरे लिए सुखद है .रचना पसंद करने के लिए आभार आपको .
हार्दिक बधाई आदरणीया कांता जी ..माँ की भावुक स्थिति बखूबी चित्रण किया है आपने इस लघु कथा के लिए तहे दिल बधाई स्वीकार करें सादर
आदरणीया कांता जी , माँ की ममता को आपकी कथा परिभाषितन करने मे सफल हुई है , हार्दिक बधाई ! पर सोचने वाली बात ये है कि क्या सारी कठोरता की ज़िम्मेदारी पिता की है ? और इस तरह बच्चे की ग़लतियों को देख - जानकर भी स्वयँ माँ का कुछ न करना और कठोरता की स्थिति को पिता के ऊप डाल देना क्या सही है । मै उस कल की कल्पना अगर करूँ तो मुझे लगता है कि पिता डांत या पिटाई के समय ये महिला बच्चे को केवल पुचाकारेगी और खुद को ममता मयी साबित करने मे सफल होगी । लेकिन वो एक ज़िम्मेदार माँ मेरी नज़रों मे नही है ।
एक प्रशन आता है मेरे मन में -
अगर माँ की शिकायत सुन कर पिता ये कह दे , कि तुम ही सँभालो अपने लाड़ले को , जो करना करो , तो माँ क्या करेगी ? सोचियेगा ।
हार्दिक बधाई आदरणीय कांता रॉय जी! बेहतरीन प्रस्तुति!
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