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हार्दिक बधाई आदरणीय महर्षि त्रिपाठी! बेहतरीन गज़ल!
यही आरजू है हमारी खुदा से
हमें हर जनम में उन्ही का बना दें
आपका कहना बिल्कुल सही है आदरणीय गिरिराज भाई. नये सदस्यों को हठात कुछ कहने से हम भी बचते हैं, बचना चाहते हैं. लेकिन सही बात रखना और ’साहित्यकारिता’ के भटकाऊ भ्रम से बाहर निकालना भी तो आवश्यक है. वर्ना इस मंच का हासिल ही क्या होगा. दूसरे, हम सभी अपनी-अपनी समझ से प्रस्तुतियों पर बातें रखें तो किसी व्यक्ति विशेष या व्यक्ति समूह के द्वारा अपेक्षित टिप्पणियों की रचनाकारों को अनावश्यक प्रतीक्षा नहीं करनी होगी.
मै उत्तीर्ण हो के ही लूँगा बिदाई
वो इक बार दिल में अगर दाखिला दें
कमाल !! .. ज़वाब नहीं इस शेर का.. धन्य हैं आदरणीय !!
वैसे, ऐसाअ रेडीमेड सुझाव लेखन में शुरुआत कर रहे अभ्यासियों को न दिया करें. उन्हें अभ्यास् करने दें. पता तो चले कि वे कितने गंभीर हैं !!
:-))
सबसे पहले मै , आ. सौरभ भाई से माफी चाहूँगा , कि मेरी नज़र -- डिग्री - 22 पर नही पड़ी , और शुतुर्गुर्बा भी नही बता पाया । ऐसा होना इस मंच गम्भीर गलती मानी जाती है , जो मुझसे हुई ।
आ. महर्षि भाई - आप चाहें तो ऐसा करलें
डिग्री साथ होगी हमारी विदाई --- को
मै उत्तीर्ण हो के ही लूँगा बिदाई
वो इक बार दिल में अगर दाखिला दें ( हमे को अगर किया हूँ )
//आ.गिरिराज सर नें कहा सभी ठीक है,कोई गलत नही,उन्होने कहा चलो कर सकते, मैने उनकी वात सुनी है //
आदरणीय गिरिराज भाई को इस मंच पर ग़ज़लग़ोई करते हुए एक अरसा हो गया है. उनकी ग़ज़लों में मिसरों का विन्यास तार्किक रूप से हुआ करता है. अतः वे यदि कुछ कहते हैं तो उसका निहितार्थ वैसा सपाट नहीं होता जैसा आपको समझ में आया है. भाई, यही कारण हैं, कि नये सीखने वालॊं से बहुत लोग नहीं उलझते. देखिये, आदरणीय गिरिराज भाई भी नहीं उलझे ! बस एक इशारा दे कर चुप हो गये. क्यों कि आज के ज़माने में, जहाँ अन्यान्य ऐसी साइटें उपलब्ध हैं, जिनपर अपनी रचनाएँ पोस्ट करते ही नये लेखक तुमुल ’वाह-वाह’ सुन-सुन कर, साहित्यकार पहले हो जाते हैं, रचनाकार हों या न हों.
मेरे इस कहे का एकदम से बुरा मत मान लीजियेगा.
अब आते हैं आदरणीय गिरिराज जी की सलाह पर.
ग़ज़ल बातचीत की विधा का नाम है. इतना तो भाई, आप भी जानते हैं. वस्तुतः यह संवाद करने की प्रक्रिया का शास्त्रीय स्वरूप है. अतः ऐसा कोई मिसरा जिसमें किसी के द्वारा किसी को सुनाते हुए, कुछ कहने की दशा बनती हैम् वह बहुत सही बुनावट वाला मिसरा माना जाता है. ऐसा मिसरा ग़ज़ल की विधा में उत्तम प्रकृति का मिसरा माना जाता है. यानी, मिसरे ऐसे हों, गोया, कोई किसी से कुछ कह रहा है. इसी क्रम में यह भी बताते चलें, कि यही कारण है, ग़ज़ल के मिसरे गद्य की तरह होते हैं. मानों कोई कुछ गद्य-वाक्यों में बोल रहा है. यही कारण है, कि ग़ज़ल के मिसरे, किसी आम कविता की पंक्तियो से बुनावट और बनावट में भिन्न होते हैं. यही विशेष बुनावट और बनावट ग़ज़ल के मिसरों की आदर्श दशा है.
अब आप स्वयं बताइये कि आपके उक्त मिसरे में ’सभी’ और ’चलो’ में से किस शब्द के कारण किसी को कुछ ’कहने-सुनाने’ की दशा बनती हुई प्रतीत हो रही है ? अवश्य ही ’चलो’ से ! है न ?
विश्वास है, भाई, आदरणीय गिरिराज जी के सुझाव का मतलब समझ में आ गया होगा.
शुभेच्छाएँ
सजोंये सदाचार है जो अभी तक
अनोखा मेरा गाँव तुमको दिखा दें.. ............. ठीक है..
नज़र लग न जाये बड़ी खूबसूरत
ये तस्वीर उनकी कहीँ हम छुपा दें............. बढिया
न हो दुश्मनी साथ मिलकर रहे हम
कोई फूल यारो हम ऐसा खिला दें................इस शेर की कोई ख़ास ज़रूरत ?
डिग्री साथ होगी हमारी विदाई
वो इक बार दिल में हमें दाखिला दें.............. ऊला में डिग्री का होना मिसरे को बेबहर कर गया.
यही आरजू है हमारी खुदा से
हमें हर जनम में उन्ही का बना दें................. ठीक है..
गरीबों पे करके सितम क्या मिलेगा
करे हम मदद ताकि हमको दुआ दें................. ठीक है
रखा है छिपाकर 'अतुल' ऐब सारे
चलो अब इसे होलिका में जला दें...................... उला के ’सारे’ के साथ सानी में ’इसे’ का होना शेर में शुतुर्ग़ुर्बा का ऐब बता रहा है.
होना ये चाहिये -
रखे हैं छिपा कर अतुल ऐब सारे / चलो अब इन्हें होलिका में जला दें
आदरणीय गिरिराज भाई को अपनी समझाने की जगह काश, भाई, आपने पूछा होता कि वे ऐसा क्यों सुझाव दे रहे हैं. आपके कहे को तो उन्होंने सुन ही लिया है न ? कुछ सीखना हो तो सुनना ज़रूरी है. वर्ना आप कम कहाँ लिखते हैं ? है न ?
शरमों हया नहीं होता बल्कि शरमो हया होता है.
शुभेच्छाएँ
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