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अपनी टपरिया, अपनो सिलसिला (लघुकथा)

"अबकी हमयीं करेंगे जो काम, तुम औंरें नीचे ठांड़े रईयो, जैसी कहत जायें, करत जईयो!" यह कहते हुए ज़िद्दी बाबूजी ऊपर चढ़ गए छप्पर सही करने।

"का फ़ायदा ई घास-फूस के छप्पर से, आंधियन में फिर सब बिखर जैहे!" कन्हैया ने व्यंग्य करते हुए कहा।

"बेटा, आंधी-तूफ़ानों से कैसे निपटो जात है, जो हमईं खों मालूम है, तुम औरों ने तो कछु नईं भोगो अभै तक!" बाबूजी ने कन्हैया और उसकी पत्नी के हाथों कुछ बल्लियें (लकड़ियें) और घास-फूस लेते हुए कहा- "झुग्गी झोपड़ियों में ज़िन्दगी ग़ुज़ारवे को लम्बो तज़ुर्बा है मोय, क़ुदरत तो क़ुदरत , इंसानों के थोपे भये आँधी-तूफ़ान झेल लये हमने!"

"तुमने झेल लये, हम न झेल पेहें! बेर-बेर जोड़वे-तोड़वे को जो काम हम न कर पेहें बेर-बेर, के दई हमने!" लल्लन ने नीचे से चिल्लाकर कहा।

दोनों बेटों को समझाते हुए बाबूजी बोले- " जोड़वे-तोड़वे और बनावे-मिटावे को जो सिलसिला हर जगा चलत है , हमरी बस्तियन में, राजनीति में और सरकार में भी! जब नेता और सरकार हमरे संग बदमाशी करत हैं, तो हमखों भी जोई सिलसिला चलन देने हैं, झुग्गियन में ही रहने हैं, ऐन खाओ-पियो, मेहनत करो, पैसा जोड़ो, पैसा! बाक़ी ऊपर वाले की टपरिया सभई में 'बेस्ट'!"

[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on July 3, 2016 at 11:26am
रचना पर उपस्थित होने पर व प्रोत्साहन देने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय तेज वीर सिंह जी।
Comment by TEJ VEER SINGH on June 20, 2016 at 2:07pm

हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी! बेहतरीन  प्रस्तुति!

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 20, 2016 at 3:41am
दरअसल मैं यह समझा कि लघुकथा संदर्भ में 'क़िस्साग़ोई' एक नकारात्मक बात है, तो मैं आपकी टिप्पणी को नकारात्मक लेते हुए चिंतित हो गया था, इसलिए सुधार संबंधी मार्गदर्शन की बात कह रहा था। कृपया अन्यथा न लीजिएगा आदरणीय सौरभ जी।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 20, 2016 at 12:08am
मेरे साथ शायद यही समस्या है कि अपनी बात सही तरह से नहीं रख पाता हूँ, कृपया अन्यथा न लें आदरणीय श्री सौरभ पाण्डेय जी। दोनों ही बातें मेरे बारे में ग़लत हैं- // , या तो आप नितांत भोले हैं, या पाठकों की खिल्ली उड़ाने में आपको कुछ अधिक ही मज़ा ....// कृपया मेरे प्रति ऐसी धारणा न बनाइयेगा। मैं भी अपनी टिप्पणी में अभिव्यक्ति सुधारने का प्रयास करूँगा। सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 19, 2016 at 11:33pm

अदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, या तो आप नितांत भोले हैं, या पाठकों की खिल्ली उड़ाने में आपको कुछ अधिक ही मज़ा आता है. दोनों दशाएँ रचनाकर्म के लिहाज से उचित नहीं. ऐसा ही मैं जानता हूँ. आप यदि कुछ सोच-जान कर बैठे हों तो आपकी समझ से वही उचित है. जहाँ तक इस प्रस्तुति के ’लघुकथा हो जाने’ की सूरत का सवाल है, जो कि आपका महती सवाल है, तो इस विन्दु पर आपकी नज़र में ’लघुकथा जानने वालों’ की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा करें. 

भाई, लगे हाथों मैं यही बता सकता था.

सादर

 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 19, 2016 at 10:59pm
रचना पर समय देने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय श्री सौरभ पाण्डेय जी। यदि यह भी क़िस्सागोई है,तो कृपया लगे हाथ इसे लघुकथा में रूपांतरित करने के उपाय भी बताइयेगा तो आपकी टिप्पणी पूर्ण होकर मुझे मार्गदर्शित कर सकेगी।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 19, 2016 at 5:23pm

आपकी किस्साग़ोई ! वाह वाह वाह !  मुग्ध कर दिया आपने आदरणीय.. हृदयतल से शुभकामनाएँ. 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 19, 2016 at 1:59am
सौभाग्य है मेरा कि आपने भी मेरी रचना पर समय दिया। जी बिलकुल, आपके विचारों से सहमत हूँ। लेकिन यही यथार्थ है न। स्नेहिल हौसला अफ़ज़ाई हेतु हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय शरदिन्दु मुकर्जी जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on June 18, 2016 at 2:45pm
/जब नेता और सरकार हमरे संग बदमाशी करत हैं, तो हमखों भी जोई सिलसिला चलन देने हैं, झुग्गियन में ही रहने हैं,/ ....क्या यहाँ सकारात्मकता पीछे नहीं हट जाती है? वैसे जिस माहौल का वर्णन है और जिसके मुँह से यह कहलवाया गया है वहाँ सटीक ही बैठता नज़र आता है.
/बाक़ी ऊपर वाले की टपरिया सभई में 'बेस्ट'/....यहाँ एक सहज सरल इंसान की गम्भीर दार्शनिक मनोभावना सहज ढंग से व्यक्त हुई है.....मेरी समझ के अनुसार यही अंश कथा को सशक्त बना रहा है. साधुवाद आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब.
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 17, 2016 at 4:27pm
आंचलिक बुन्देली बोली में पहली बार रचना लिखने की कोशिश की है, आपको भी अच्छा लगा, रचना पसंद आई, मेरा प्रयास सफल हुआ। जी, मैंने भी कई बार सोचा था कि /बेर-बेर/ को केवल एक बार ही रहने दें, लेकिन अंततः दिल ने यही कहा कि हम ऐसा दोहराव अनौपचारिक बोलचाल में प्रायः करते हैं एक ही वाक्य में! उस हक़ीक़त को सजीवता देने के लिए ऐसा ही रहने दिया जानबूझकर। प्रवाह में वार्तालाप करते हुए मुझे वह सहज सा लगा। हालाँकि लघुकथा विधान अनुसार ऐसी पुनरावृत्ति रोकी जा सकती है। शेष वरिष्ठजन जैसा कहें। रचना पर समय देकर खुलकर अपनी बात कहने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब डॉ. आशुतोष मिश्रा जी।

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