बिना कोई ख़ास सफलता हासिल किए हुए भी 'सच' सदैव ख़ुद पर अभिमान कर रहा था। 'झूठ' के सामने वह हमेशा की तरह अपने ही गुणगान करते हुए बोला- "मैं हूं न ! सब समस्याओं का समाधान चुटकियों में करवा देता हूँ! जिसने मुझे समझा और अपनाया वह धन्य हो गया और महान कहलाया!"
'झूठ' जो पहले उसकी बचकानी बातें सुनकर मुस्करा रहा था, अब ठहाके मारकर हँसने लगा।
"अरे, इतना ही सुनकर ख़ुश होने लगे, अभी और भी तो सुनो!" - 'सच' ने शेख़ी मारते हुए कहा-" पुलिस विभाग हो या न्यायालय, परिवार हो या दुकान, उत्पाद हो या उसका विज्ञापन सब जगह मैं मौजूद तो रहता हूँ, लेकिन चुप रहते हुए बिना बोली लगाये मैं लोगों को ऊंचे दाम दिला देता हूँ, कभी बिक जाता हूँ, कभी किसी को बिकवा देता हूँ!"
'झूठ' फिर अपनी हँसी नहीं रोक सका । ठहाका मारते हुए उसने कहा- "बस अब चुप भी हो जा, क्यों मुझे शर्मिन्दा कर रहे हो? मुझे मालूम है आजकल तेरी औक़ात है क्या?"
(मौलिक व अप्रकाशित)
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आदरणीय उस्मानी जी ..सच की वाकई में ये हालत है ..इस सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
अादरणीय उस्मानी साहिब सच की दुर्दशा प र अपने सार्थक कटाक्ष किया है। इस सुंदर लघुकथा की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई।
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