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गजल(सो रहा माझी....)

2122 2122 2122 2
सो रहा माझी किनारा दूर लगता है
बढ़ रही कश्ती पथिक मजबूर लगता है।1

रोशनी का जो सबब हमदम कभी बनता,
आँख पे पट्टी चढ़ी मद चूर लगता है।2

सिर गिने जाते अभी तक थे जमाने में
हो रहा उल्टा नशा भरपूर लगता है।3

खेल चलता है यहाँ शह-मात का कबसे
मात चढ़ती शाहपन काफूर लगता है।4

हो रहीं सब ओर हैं बाजार की बातें
बिक गया जैसे यहाँ हर नूर लगता है।5

दाँव पर लगता यहाँ अब जो बचा कुछ था
लुट रहा कोई बिका मशकूर लगता है।6

देख तो सकता नहीं जो तोलता किस्मत,
वक्त के माथे बड़ा नासूर लगता है।7
मौलिक व अप्रकाशित@मनन
मशकूर=आभारी

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Comment by Manan Kumar singh on July 19, 2016 at 7:34pm
आदरणीय मित्र युगल,जरूरी परिमार्जन करता हूँ;इंगित करने के लिए आपका शुक्रिया।
Comment by Manan Kumar singh on July 19, 2016 at 7:29pm
आदरणीय गिरिराज भाई,आपका आभार।
Comment by Manan Kumar singh on July 19, 2016 at 7:28pm
आदरणीय अशोक आभार आपका।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 19, 2016 at 6:05pm

आदरणीय मनन भाई , अच्छी गज़ल हुई है , हार्दिक बधाई आपको । ऐबे तनाफुर तो आदरणीय अशोक भाई बता ही चुके हैं , इसके सिवाय , किश्मत को क़िस्मत कर लीजियेगा ।

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 19, 2016 at 7:15am

आदरणीय मनन कुमार सिंह जी सादर, खूबसूरत गजल कही है. बहुत मुबारकबाद कुबुलें. फिरभी मतले में और एक शेर में एब-ए-तनाफुर आ गया है. देख लें.सादर.

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