ईमान पर न टंगती, आज देश की नीति
बे-ईमानी हो गई, हर पार्टी की रीति |1|
भूल हुई है आम से, जनता अब पछताय
बाहर पहुंच दाल है, भात नमक से खाय |२|
टूट गये सब वायदे, समय हुआ प्रतिकूल
अब चुनाव ही हारकर, वो समझेगा भूल |३|
शुभदिन अब कब आयगा, हुए भले दिन दूर
महँगाई को झेलने, जनता है मजबूर |४|
देखा समतावाद को, है स्वांग अर्थ हीन
धनियों की यह मंडली, दूर है दीन हीन |५|
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय काली पद भाई . दोहा वली के लिये हार्दिक बधाइयाँ ! आ. अशोक भाई जी के उचित सलाहों लर गौर कीजियेगा ।
आदरणीय /बाहर पहुंच दाल है/ , /टूट गई सब बायदे/ , /शुभदिन अब कब आयगा/ , /धनियों का है मंडली/ इस सब के बारे में आदरणीय अशोक सर कर चुके हैं। चूंकि काव्य मेरी विधा नहीं है पर फिर भी ये मुझे भी अखर रहे हैं। गुणीजनों की सलाह पर ग़ौर फरमाएं । सादर
आदरणीय कालीपद प्रसाद मंडल जी सादर, अच्छा प्रयास हुआ है आपका दोहों पर.फिरभी कुछ और ध्यान देने की आवश्यकता है. सादर.
ईमान पर न टंगती, आज देश की नीति
बे-ईमानी हो गई, हर पार्टी की नीति |1|.......नीति/नीति समान्त हो गया है.
भूल हुई है आम से, जनता अब पछताय
बाहर पहुंच दाल है, भात नमक से खाय |२|............पहुँच को पहुंच लिखना उचित नहीं है. फिर //बाहर पहुँच दाल है//..कहन सही नहीं है.
टूट गई सब बायदे, समय हुआ प्रतिकूल
हारकर फिर चुनाव में, वो समझेगा भूल |३|......टूट गई/गए ..बायदे/वायदे /// हारकर फिर चुनाव में ......इसे // अब चुनाव ही हारकर //....इसतरह किया जा सकता है.
शुभदिन अब कब आयगा, हुए भले दिन दूर
महँगाई को झेलने, जनता है मजबूर |४|.........अच्छा दोहा हुआ है.किन्तु आएगा को आयगा करना ठीक नहीं है.
देखा समतावाद को, है स्वांग अर्थ हीन
धनियों का है मंडली, है दूर दीन हीन |५|.......दोनों ही सम चरणों में गेयता सही नहीं है.//धनियों /धनिकों का/की
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