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सरकारी अनुदान - ( लघुकथा ) -

सरकारी अनुदान - ( लघुकथा )  -

"अरी ओ कुसुमा, अभी तू इधर ही खड़ी है! जल्दी से फारिग होकर आजा! देख सूरज निकल आया है"!

"वही तो सोच रही हूं अम्मा, किधर जायें,चारों तरफ़ तो खेत खलिहान में आदमी लोग दिख रहे हैं"!

"इसलिये तो कहते हैं बिटिया कि अंधियारे में ही हो आया करो"!

"अम्मा, तुम तो खुद ही देख चुकी हो कि पिछले महीने दो लड़कियों को जंगली जानवर उठा ले गये"!

"अरे बिटिया, गाँव देहात में यह सब कहानी किस्से तो चलते ही रहते हैं!कौन जाने सच क्या है"!

"पर अम्मा, तुम घर में शौचालय क्यों नहीं बनवा लेती!अब तो सरकार भी अनुदान देती है"!

"सोच तो हम भी यही रहे हैं, बिटिया!पर वह अनुदान मंजूर करवाने के लिये जो अनुदान देना पड़ता है, वह कहाँ से लायें"!

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Nita Kasar on August 1, 2016 at 9:27am
सरकार कितना ही लोगों के लिये करना चाहे पर होता एेसा ही है ।बिचौलियों वसूली से बाज़ नही आते बधाई आपको आद०तेजवीर सिंह जी ।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 1, 2016 at 7:01am
वाह । अनुदान के लिए अनुदान देना पड़ता है । कितना कटु सत्य है यह भी । बहुत अच्छी कथा और करारा कटाक्ष । हार्दिक बधाई आदरणीय तेज वीर सिंह जी ।

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