विमला और विशाल झगड़ रहे हैं।कैफे में बैठे लोग यह देखकर चकराये हुए हैं।अब तक उन लोगों ने इन दोनों का हँसना-खिलखिलाना ही देखा था,पर आज तो नजारा ही कुछ और है।विमला एकदम से भिन्नायी हुई है।विशाल ने कुछ कहना चाहा,पर वह खुद उबल पड़ी-
बस करो,अब रहा ही क्या कहने को......?
-मेरा मतलब, सब कुछ तो सहमति से ही हुआ था न?
-हाँ क्यों नहीं,पर कुछ और भी तो बातें हुई थीं कि नहीं,बोलो।
-हाँ,पर शादी के लिये घर वाले राजी नहीं हैं न ।उन्हें कैसे भी पता चल गया है कि तुम वहीदा हो,विमला नहीं।
-बस इसीलिये?
-हाँ,तो और क्या?
-बताओ तो।तुम्हारी पत्रकारिता चमकाने के लिये मैंने क्या नहीं क्या?कहाँ-कहाँ बिछकर भेदभरी सूचनाएँ एकत्र करती रही, तुम्हारी रिपोर्टिंग की धार बनती रही।और अब तुम.....।
-प्लीज बात समझो वी.।मैं मजबूर हूँ।
-नहीं तुम कायर हो।धर्म भीरू,स्वार्थी कहीं के।तुम डरपोक खानदान से हो।
-बस.....अब एक लफ्ज भी आगे नहीं।तुम्हारी बिसात क्या है?
-हाँ विशाल,मेरी बिसात ही क्या है?पर तुम मर्दों की औकात पता कर लेती है ,बस।
वह सन्न से कैफे से निकल गयी।
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मौलिक व अप्रकाशित@मनन
Comment
बहुत अच्छी लघु कथा लिखी है आद० मनन कुमार जी हार्दिक बधाई
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