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धंधे का उसूल(लघुकथा)राहिला

एक भिखारी के झोपड़े में आग क्या लग गयी,सारी मीडिया मछों की तरह भिनभिन करती मौका-ए-वारदात पर पहुँच गयी ।ये एक सामान्य आगजनी की घटना हो सकती थी ,लेकिन उस झोपड़े से जो जले हुए नोटों के बोरे के बोरे बरामद हुए ,ये खास खबर थी ।अब इस घटना को किस तरह सारे दिन की खबर बनाना है इसकी कबायत में मीडिया बाल की खाल निकल रही थी।
"बाबा!भीख मांग ,मांग कर करोड़ों रुपये जमा किये।और आज उनमें आग लग गयी।इससे तो अच्छा होता आप इन रुपयों का भरपूर उपयोग कर लेते।अच्छा खाते ,अच्छा पहनते।"
"आपके कहने का मतलब है हम अपना धंधा चौपट कर लेते?अरे बाई साहब!हर धंधे का अपना उसूल होता है।अगर हम अच्छा खाते ,अच्छा पहनते तो कौन उल्लू का पठ्ठा हमें भीख देता ?"वो तनिक झुंझला के बोला।
"तो भीख मांगने की जरूरत ही क्या थी?इतना क्या काफी नही था।"वो जले नोटों की ओर इशारा करके बोली।
"ये कितने दिन तक चलता?"उल्टा भिखारी ने सवाल दागा।
"ओह...!तो ये कम है आपकी नज़र में!"
"अरे बाई साहब!निठल्ले बैठ कर जमा पूँजी खाने से तो कुबैर का खज़ाना भी खाली हो जाता ।ये तो चंद बोरे थे।"
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Rahila on August 7, 2016 at 9:31pm
आदरणीय अशोक सर जी! आपको रचना पर उपस्थित देख ,बहुत प्रसन्नता हुयी ।आपको रचना अच्छी लगी ।मेरा लेखन सार्थक हुआ ।सादर नमन
Comment by Rahila on August 7, 2016 at 9:28pm
बहुत, बहुत शुक्रिया आदरणीय दुबे सर जी इस प्यारी सी टिप्पणी के लिए। सादरनमन
Comment by Ashok Kumar Raktale on August 7, 2016 at 5:15pm

वाह ! वाह ! बहुत सुंदर लघुकथा हुई है आदरणीया राहिला जी. सच है नोटों की भूख कभी न ख़त्म होने वाली होती है. बहुत-बहुत बधाई.सादर.

Comment by Rahila on August 7, 2016 at 12:46pm
आदरणीया नीता दीदी!खूब, खूब आभार रचना को समय देने के लिए।अब क्या बदलूँ "मछों" को अब तक तो सब परिचित हो गए इस शब्द से ।हा हा हा ।सादर
Comment by Rahila on August 7, 2016 at 12:43pm
बहुत, बहुत आभार आदरणीय सुशील सर जी!आपको रचना अच्छी लगी ,मेरा सौभाग्य।सादर नमन
Comment by Rajendra kumar dubey on August 7, 2016 at 7:01am
मिडीया की मधु मक्खी झोपडी में ढूंढ रही थीं पर वो शहद तो आप अपनी लघुकथा में ले आये थे।आदरणीय राहीला जी आपको बहुत बहुत बधाई।
Comment by Nita Kasar on August 6, 2016 at 8:56pm
हर धंधे का उसूल होता है,सौ टके की बात है,उस भिखारी की दूरदर्शिता भी यहाँ साबित हो गईअंतिम पंक्ति ने कथा में जान फूँक दी,बधाई आद०राहिला जी,मछो को मधुमक्खियों को कर लें,पाठकों को शब्द समझनें मे सहूलियत होगी,सादर।
Comment by Sushil Sarna on August 6, 2016 at 8:25pm

बहुत सुंदर और संदेशप्रद लघुकथा का सृजन हुआ है आदरणीया राहिल जी। इसकी पंच लाइन ''अरे बाई साहब!निठल्ले बैठ कर जमा पूँजी खाने से तो कुबैर का खज़ाना भी खाली हो जाता ।ये तो चंद बोरे थे।" में कथा का सार और नसीहत छुपी हुई है।  हार्दिक बधाई स्वीकार करें। 

Comment by Rahila on August 6, 2016 at 7:38pm
बहुत शुक्रिया आदरणीया प्रतिभा दीदी !इतनी सुंदर टिप्पणी के लिए ।सादर
Comment by Rahila on August 6, 2016 at 7:37pm
बहुत, बहुत शुक्रिया आदरणीया राजेश दीदी!नहीं दीदी! ये रचना तकरीबन साल भर पहले की है ।उस वक़्त ये भोपाल में घटित हुयी थी।सादर

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