1222-1222-1222-1222
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ख़ुदाया उसकी तकलीफ़ें मेरी ज़ागीर हो जाएँ,
ज़माने भर की ख़ुशियाँ उसकी अब ताबीर हो जाएँ |
यूँ दर्दों में तडपना और आन्हें मेरे सीने में,
कहीं तब्दील हो आन्हें न अब शमशीर हो जाएँ |
खुदा की हर अदालत में उसे गर चाह मिल जाए,
वो देखे ख्वाब दुनिया के, सभी तस्वीर हो जाएँ |
न मंज़िल है न वादा है न उसकें बिन मैं ज़िन्दा हूँ,
कहीं ये आदतें उसकी न अब तकदीर हो जाएँ |
जुबां से चुप ये आँखें बंद उसके कानों पर फालिज,
शहर ज़ख्मों के, सीने में, न अब तामीर हो जाएँ |
यूँ किस्से अपने लिक्खे ख़ूब उसने ख़ुद सफ़ीनों पर,
फ़कत चाहत थी उनकी वो सभी तहरीर हो जाएँ |
हर्ष महाजन
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय हर्ष महाजन साहब उम्दा कोशिश और खुबसूरत सोच केलिये बधाई स्वीकारें...... बाकि बातें आदरणीय गिरिराज सर ने समझा ही दी हैंं इसी मंच मेंं "गज़ल की बातें" काअध्यन करेंं, हम सब वहीं से सीखते हैं ।
आदरणीय हर्ष भाई , गज़ल का प्रयास अच्छा है , बहर आपने मिला लिया है पर ग़ज़ल मे काफिया न होने के कारँ ये ग़ज़ल होने से रह गई है । बिना रदीफ के गज़ल हो सकती है पर बिना काफिया के ग़ज़ल कही नही जा सकती । प्रयास के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
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