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आदरणीय सतविन्द्र जी, आपकी पकड़ छन्द विधानों के हवाले से मज़बूत होती जा रही है. आप मात्राओं की गणना, शब्द-संयोजन तथा पंक्तियों के विन्यास के हिसाब से सम्यक प्रयास करने लगे हैं. आप अब कथ्य के उन विन्दुओं की ओर भी ध्यान दें, जिनसे कोई बात पाठक तक सहज ही पहुँचती है. किसी पंक्ति से बाहर आता वाक्यभाव सहज और अकृत्रिम हो तो कथ्य का वाकई प्रभाव बढ़ जाता है.
इन पंक्तियों पर ग़ौर करें आदरणीय -
राग रंग और मौज मस्ती,क्या उन सबको भाए थे .. यह एक सायास बनाई गयी पंक्ति है जिसका होना-न-होना कोई अर्थ नहीं रखता.
मिला दाम कब उसको श्रम का,बस तन की बर्बादी है.. इस पंक्ति को लेकर भी मैं बहुत संतुष्ट नहीं हो पाया. ’आज़ादी’ की तुक केलिए ’बर्बादी’ को लाया तो गया है. लेकिन ’बर्बादी’ का निर्वहन ’तन’ के सापेक्ष हो नहीं पाया है.
मैं शिष्टाचारवश नहीं कहूँगा, कि मैं समझ नहीं पाया, या, मेरी यह गलती हो सकती है. आप इन पंक्तियो पर अवश्य ध्यान दीजियेगा. पंक्तियों को लेकर तार्किक रहना अवश्यक है. दूसरे, मैं यह कत्तई नहीं कह रहा कि जैसा मैं चाहता हूँ वैसी ही पंक्तियाँ हों, तभी यह रचना उचित होगी. आप कथ्य के ऊपर अवश्य ध्यान दें आदरणीय.
सादर
राग रंग और मौज मस्ती,क्या उन सबको भाए थे---लय नही बन रही आदरणीय
वरण किया जो लेकर आए,उसको वे मतवाले थे
आजादी की दुल्हन खातिर,खुद मिट जाने वाले थे।---वाह ! लाजवाब रचना है ये आपकी आदरणीय सतविन्द्र जी .बधाई प्रेषित है .
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