ग़ज़ल : - राग मुझको सुहाता नहीं दोस्तो !
राग मुझको सुहाता नहीं दोस्तो ,
मैं कोई गीत गाता नहीं दोस्तो |
खूबसूरत ज़हन का तलबगार हूँ ,
रूप कोई भी भाता नहीं दोस्तो |
ये मकाँ मेरे पुरखों की जागीर है ,
अब इधर कोई आता नहीं दोस्तो |
धूप की मेरे आँगन में आमद नही ,
और मैं केक्टस उगाता नही दोस्तो |
राह की दूब शबनम से धोई हुई ,
पांव आगे बढाता नहीं दोस्तो |
छीनकर खाने वालों के इस दौर में ,
मांगकर भी मैं खाता नहीं दोस्तो |
टूटकर जिसने अपना बनाया हो घर ,
बस्तियां वो ढहाता नहीं दोस्तो |
गाँव के बच्चे पढ़ने को आतुर बहुत ,
कोई उनको पढाता नहीं दोस्तो |
(अभिनव अरुण की डायरी से बकलम खुद )
Comment
आभार कपूर साहब ! आपने जैसा कहा शेर वैसा ही होना चाहिये था ! चार चंद लग गये ग़ज़ल में !!
वाह भाई वाह।
देखकर दूब शबनम से धोई हुई ,
पांव आगे बढाता नहीं दोस्तो |
//राग मुझको सुहाता नहीं दोस्तो ,
मैं कोई गीत गाता नहीं दोस्तो // बहुत ही गहरे भाव, खुबसूरत मतला,
//खूबसूरत ज़हन का तलबगार हूँ ,
रूप कोई भी भाता नहीं दोस्तो // true beauty ढूंढने वालों को रूप से क्या लेना, सुंदर शेर ,
//ये मकाँ मेरे पुरखों की जागीर है ,
अब इधर कोई आता नहीं दोस्तो // वोहो ! दिल में सीधे उतर जाने वाला शे'र , सच सबके बस की बात नहीं |
//धूप की मेरे आँगन में आमद नही ,
और मैं केक्टस उगाता नही दोस्तो // बहुत खूब अरुण भाई , फूलों की चाहत रखने वालों को काँटों से क्या काम ?
//राह की दूब शबनम से धोई हुई ,
पांव आगे बढाता नहीं दोस्तो // खुद अपनी राह बनाने वाले कटीले और धुल धूसरित राह से परहेज कहा करते, उन्हें तो बस चलते जाना है | बेहतरीन ख्याल |
//छीनकर खाने वालों के इस दौर में ,
मांगकर भी मैं खाता नहीं दोस्तो // वॉय होय , पुनः एक और दिल छूने वाला शे'र , बहुत खूब ,
//टूटकर जिसने अपना बनाया हो घर ,
बस्तियां वो ढहाता नहीं दोस्तो // सच बयानी , जिसने मर्म समझा है वाही जाने |
//गाँव के बच्चे पढ़ने को आतुर बहुत ,
कोई उनको पढाता नहीं दोस्तो // बदनसीबी है अरुण भाई, बच्चो को क पढने के लिए भी आज संघर्ष करना पड़ रहा |
कुल मिलाकर एक बेहतरीन ग़ज़ल , बधाई स्वीकार करे |
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