बहर : २ १ २ २ २ १ २ २ २ १ २
आई जब तू जिन्दगी हँसने लगी
तू मेरे हर सपने में रहने लगी |
धीरे धीरे तेरी चाहत बढ़ गई
देखा तू भी प्रेम में झुकने लगी |
जिन्दगी का रंग परिवर्तन हुआ
प्रेम धारा जान में बहने लगी |
राह चलते हम गए मंजिल दिखा
फिर भी जीना जिन्दगी गिनने लगी |
देखिये शादी के इस बाज़ार में
हाट में दुल्हन यहाँ बिकने लगी |
शमअ बिन तो तम डराने जब लगा
जिन्दगी को जिन्दगी छलने लगी |
दीप का लौ झिलमिलाते ही रहे
एक आँधी तेजी से बहने लगी |
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शिज्जू "शकूर " जी ,आदाब ! ब्लॉग पर आने और अमूल्य विचार प्रगट करने के लिए आपका आभार | परन्तु
"हँसने" और "रहने " में क्या दोष है समझ में नहीं आया | "ने " हर्फे रवी है उसके पूर्व स्वर "अ " है ,स्वर साम्य है ,परन्तु उसके पूर्व व्यंजन "स"और "ह' है जो साम्य नहीं है |अत:उसके पहले ह और र से कोई वास्ता नहीं है |हमें "ने" के पूर्व स्वर तक निभाने की वाध्यता है |ऐसा मैं सोचता हूँ | आगे आप किस दोष के बारे में कह रहे हैं, मैं समझ नहीं पाया, कृपया बिस्तार से कहे,|
सादर
आदरणीय कालिपद जी ग़ज़ल पर प्रयास अच्छा है आपका, काफी कुछ समर साहब ने कह दिया है मेरी तरफ से बधाई आपको, मैं एक बात ज़रूर कहूँगा कि काफ़िया चयन में सावधानी रखी जाए तो ऐब से मुक्त रहा जा सकता है, इस ग़ज़ल के मतले में आपने हँसने और रहने काफिया लिया है जो नियमानुसार दोषपूर्ण है।
आदरणीय समर कबीर जी ,आदाब ! हर शेर को ध्यान से पढने और कमियों को दूर करने का सुझाव देने किये तहे दिल से आभार | मैंने कापी में सुधार लिया है | एक बात सिखने को मिली --"जब इक " को पढ़ते समय उच्चारण 'जबि क ' ही होगा न ?और इसे २१ ही लिया जायगा ?
सादर
आ आमोद जी शेर पसंद करने के लिए धन्यवाद
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