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ग़ज़ल इस्लाह के लिए मनोज अहसास

212 212 212 212 212 212 212 212


एक दिन सब बदल जायेगा हमसफर, ग़म न कर, ग़म न कर, ग़म न कर ,ग़म न कर
वक़्त है तो कठिन कट रहा है मगर , ग़म न कर, ग़म न कर, ग़म न कर ,ग़म न कर

भावनाएं भंवर के मुहाने पे हैं,तेरी मर्ज़ी भी तो डूब जाने में है
क्यों सताता है फिर खोने पाने का डर,ग़म न कर, ग़म न कर, ग़म न कर ,ग़म न कर

राह कैसी भी हो मुस्कुराले ज़रा,अपने दिल का सबर आज़मा ले ज़रा
तेरी आहट में है रौशनी का नगर, ग़म न कर, ग़म न कर, ग़म न कर ,ग़म न कर

कोई नाशाद है कोई आबाद है,सबकी खातिर मेरी ये ही फरियाद है
मेरे मालिक अता कर दे,सबको सबर ग़म न कर, ग़म न कर, ग़म न कर ,ग़म न कर

ख्वाब की बात है रात की बात है,बात कोई नहीं पर बड़ी बात है
मुस्कुराके वो बोले मुझे देखकर ग़म न कर, ग़म न कर, ग़म न कर ,ग़म न कर

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 26, 2016 at 4:18pm
रोचक तो लगी है रचना, लेकिन मोहतरम जनाब शिज्जु शकूर साहब की सटीक इस्लाह महत्वपूर्ण है। बेहतरीन यथार्थ पूर्ण भाव सम्प्रेषित करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय मनोज कुमार अहसास जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 26, 2016 at 3:57pm

आदरणीय मनोज कुमार अहसास जी सर्वप्रथम रदीफ का इस तरह का अनावश्यक दोहराव ग़ज़ल को कमज़ोर कर रहा है, यहाँ आप बिना रदीफ की ग़ज़ल भी कह सकते हैं क्योंकि काफिया तक बयान मुकम्मल हो जाता है, उसके बाद के अल्फ़ाज़ भर्ती के प्रतीत हो रहे हैं. दूसरे सही शब्द है सब्र जिसे आपने सबर लिखा है. 

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