212 212 212 22
ज़िन्दगी को मिरे रायगाँ करके,
चल दिये रंज को मेहमाँ करके,.
बाँह के इस क़फ़स से उड़े, अब क्या?
हसरतें बाँध लें बेडियाँ करके,
बेबसी आदमी की कहाँ ठहरे,
रास्ते पर रहे आशियाँ करके,
पैर के धूल पर वक़्त मेहरबाँ,
धूल उड़ने लगे आँधियाँ करके,
लज़्ज़तें कुछ नहीं, दर्द ओ आंसू,
ये मिले फासले दरमियाँ करके,
वक़्त यूँ ही गुज़रता रहा मेरा,
एक पल को दुखद दास्ताँ करके ।
रायगाँ- बरबाद ; रंज - दुख ; क़फ़स - क़ैद ;
- आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला'
~ मौलिक एवं अप्रकाशित ~
Comment
आदरणीय आशीष जी बढि़या गजल हुई है बधाई । आदरणीय अशोक कुमार जी ने जिस मिसरे का जिक्र किया हैै उसके सानी में भी घूल उड़ने लगी होना चाहिये । देख लीजियेगा । सादर
आदरणीय आशीष सिंह जी सादर , बहुत अच्छी गजल हुई है. आदरणीय गिरिराज जी का सुझाव सही लग रहा है.
चौथे शेर में "पैर के धूल पर वक़्त मेहरबाँ," इस मिसरे में पैर के या पैर की ..देख लें . सादर.
आदरनीय आशीष भाई , अच्छी गज़ल कही आपने दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ।
सही शब्द - मेह्रबाँ है , 212 में बांधा जाना चाहिये । देख लीजियेगा ।
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