बस , यूँ ही ....
मुस्कुराई थी
उस रात
क्या तुम
बस
यूँ ही
गुनगुनाई थी
उस रात
क्या तुम
बस
यूँ ही
शरमाई थी
उस रात
क्या तुम
बस
यूँ ही
बहार बन के
आई थी
उस रात
क्या तुम
बस
यूँ ही
मुझ में समाई थी
उस रात
क्या तुम
बस
यूँ ही
मेरे लिए
रोयी थी
उस रात
क्या तुम
बस
यूँ ही
नहीं
उस रात
तुम शायद
नहीं रोयी थी
बस
यूँ ही
शायद
मेरे अहसासों की आतिश से
तुम्हारी करवटें
सुलग उठी थी
या
शायद
तुम्हारी वेणी के फूल
किसी छुअन को
तड़प उठे थे
या
शायद
रक्ताभ अधरों की तृषा
नयनों के घरौंदों में
सिमट न सकी थी
या शायद
तुम अपने अस्तित्व के
अवगुंठन में
मेरे अस्तित्व के
अहसासों की
प्रतिध्वनि से लिपट
तन्हाई की झील में
प्रेम पिपासा से व्याकुल
अपने अधीर बाहुबन्धों में
मेरे बाहुबन्धों की
आतिश महसूस कर
किसी मोम सी
पिघल रही थी
सच कहो
यही बात थी न
उस रात
तुम ही
नहीं रोयी थी
बस
यूँ ही
उस रात तो
रात भी रोयी थी
बस
यूँ ही
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय TEJ VEER SINGH जी सृजन को प्रोत्साहित करती आपकी ऊर्जावान प्रशंसा का दिल से आभार।
हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना जी। क्या खूबसूरत कविता लिखी है। मन प्रसन्न हो गया।बस
यूँ ही |
आ. सुनील प्रसाद(शाहाबादी) जी प्रस्तुति को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब सृजन को प्रोत्साहित करती आपकी ऊर्जावान प्रशंसा का दिल से आभार।
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