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मौसम तो कमोबेश वही था लेकिन घर का माहौल कुछ बदला बदला सा लग रहा था| ऑफिस से घर आने में लगभग एक घंटा लग जाता था इसलिए इस एक घंटे में देश दुनियां में क्या हुआ, इसका पता शर्माजी को घर पहुँचने पर ही लगता था| लेकिन घर पहुँचते ही टी वी खोलने का मतलब शेर के मुंह में हाथ डालना होता था| शर्माजी का घर पहुँचने का समय वैसे ही कुछ ऐसा था कि श्रीमतीजी का दिमाग चढ़ा ही रहता था और उसपर कहीं गलती से पहुँचते ही टी वी खोल दिया तो फिर पता नहीं क्या क्या सुनना पड़ जाता था| उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ, घर पहुँचते पहुँचते लगभग रात के साढ़े आठ बज गए थे| और आशा के विपरीत, उस दिन श्रीमतीजी घर के बाहर ही खड़ी मिल गयीं| थोड़ा अजीब तो लगा लेकिन ज्यादा ध्यान न देते हुए शर्माजी घर के अंदर जाने लगे|
"लाईये बैग दे दीजिये, कितना थक जाते हैं आप आजकल", कहते हुए जब श्रीमतीजी ने बैग लगभग जबरदस्ती हाथ से ले लिया तो शर्माजी को झटका लगा| कहाँ तो ये सुनने को मिलता था कि इतनी देर तक क्या करते रहते हो, कहाँ घूमते हो, बगल में वर्माजी को देखो, शाम को ही घर आ जाते हैं और एक तुम हो| और पानी के लिए भी अक्सर खुद ही किचन में जाना पड़ता था| और आज अचानक इतनी चिंता उनके थकान की, शर्माजी अचकचा गए|
अब जो सबसे पहली चीज उनके दिमाग में आयी वो यह थी कि लगता है उनकी सास आने वाली हैं| क्योंकि उन नाचीज की इतनी इज्जत तो तभी होती थी जब उनके ससुराल पक्ष का कोई आने वाला हो| खैर अब तो आ ही रही हैं तो क्या किया जा सकता है, सोचते हुए शर्माजी सोफे पर बैठ गए| अभी झुक कर जूते के तस्में खोल ही रहे थे कि श्रीमतीजी पानी का ग्लास लेकर हाजिर थीं| शर्माजीने अपने लगभग फट चुके जूते निकाले जो काफी बेगैरत से हो गए थे, एकदम उन्हीं की तरह| पिछले तीन महीने से सोच रहे थे कि नए ले लें लेकिन एक तो जूते बहुत महंगे हो गए थे और दूसरे महीने के खर्च के बाद शायद ही उनके पास कुछ बचता था| एकाध बार दबी जबान में उन्होंने श्रीमतीजी से कहा भी कि एक जोड़ी नए जूते ले लें लेकिन प्रचंड महंगाई का रोना रोते हुए श्रीमतीजी ने उनको मौका ही नहीं दिया|
जैसे ही उन्होंने पानी पीना शुरू किया, श्रीमतीजी ने झुक कर जूते उठाये और उसे रखने ले जाने लगीं| आखिर ये आज क्या हो रहा है घर में, सोचकर शर्माजी एकदम से बौखला गए और उसी चक्कर में पानी उनके नाक में चढ़ गया| खांसते हुए उन्होंने श्रीमतीजी की तरफ अचरज से देखा कि ये क्या कर रही हो| वैसे तो शर्माजी खुद ही अपने जूते रैक पर रखकर ही कमरे में प्रवेश करते थे, लेकिन अगर कभी थकान के चलते या गलती से भी जूते रैक पर नहीं रखे तो घंटों भाषण सुनने को मिल जाता था| श्रीमतीजी उनकी खांसी सुनकर हाथ में जूते पकडे हुए ही पलटी और उनको समझाने लगीं "आराम से पानी पीजिये, इतनी भी क्या जल्दी है| और हाँ, ये जूते बहुत पुराने हो गए हैं, इस रविवार को चलकर नए ले लेते हैं आपके लिए"|
अब शर्माजी को पूरा भरोसा हो गया कि न सिर्फ उनकी सास, बल्कि कुछ और लोग भी आ रहे हैं ससुराल से| और लगता है इस बार कुछ हफ्ते यहीं रहकर जायेंगे| उन्होंने अपनी उखड़ी सांस ठीक की और श्रीमतीजी को हैरत से देखते हुए पूछा "कौन कौन आ रहा है ससुराल से"|
"अरे कोई भी नहीं आ रहा, आप भी हमेशा गलत ही सोचते हैं| अच्छा ये बताईये कि आपने आज की खबर सुनी की नहीं"|
शर्माजी ने सर हिलाया, वैसे उनको आभास तो हो गया था आते समय कि कुछ हुआ है| जैसे ही बस से उतर कर पैदल घर की तरफ चले, लोगों को झुण्ड में बात करते देखा था उन्होंने| अब कहने को तो उनके पास भी एक स्मार्ट फोन था जिसमें उनका फेस बुक और व्हाट्सअप भी चलता था, लेकिन इतना पैसा कहाँ रहता था कि मोबाइल डाटा भरवा सकें| इसलिए उनका स्मार्टफोन या तो ऑफिस, या घर जहाँ भी वाई फाई था, वहीँ चलता था| बाकी समय तो सिर्फ दिखाने के लिए स्मार्टफोन था, हाँ फोन जरूर आते रहते थे, खुद तो कभी कभी ही करते थे|
"क्या हुआ आज, मुझे तो खबर ही नहीं", कह ही रहे थे कि उनके फोन ने वाई फाई के सिग्नल को पकड़ा और फिर दना दन मैसेज आने शुरू हो गए| इतने में श्रीमतीजी ने भी टी वी चालू कर दिया और शर्माजी की नजर आज के ब्रेकिंग न्यूज़ पर पड़ी| एक बार तो उनको विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है, भला इतनी प्यारी और कीमती चीज भी कभी बेकार या बंद हो सकती हैं| उनको तो बस महीने के शुरुआत में ही एकाध दिन इनके दर्शन होते थे, उसके बाद तो ये भी श्रीमतीजी की मुस्कराहट जैसे हो जाते थे, भूले भटके कभी दिख गए तो दिख गए, नहीं तो फिर अगले महीने ही|
अब जैसे जैसे वो समाचार देखते जा रहे थे, उनको अपनी माली हालत पर दुःख कम, प्रसन्नता ज्यादा हो रही थी| उनकी जेब में तो एक भी पांच सौ या हजार का नोट नहीं था, इसलिए चिंता की कोई बात नज़र नहीं आ रही थी उनको, लेकिन अपने ऑफिस के कई कर्मचारियों का ख्याल उनके मन में तुरंत आया| जब भी कैंटीन में कुछ खाने पीने जाते थे, उनके सहकर्मियों के पर्स से लगभग बाहर गिरते हुए पांच सौ और हजार के नोटों को देखकर उनको लगता जैसे ये नोट उनको चिढाने के लिए ही रखते हैं| लेकिन अब वह सोच रहे थे कि और रखो ये नोट पर्स में और हमारे जैसों को हीन भावना का शिकार बनाओ| उनको अब समाचार देखने में मजा आने लगा|
श्रीमतीजी कब बगल में चाय का प्याला लेकर बैठ गयीं, उनको पता ही नहीं चला| खैर जब चाय उनके सामने आयी तो उन्होंने हाथ में पकड़ा और समाचार देखते हुए सुड़ुक सुड़ुक कर पीना शुरू कर दिया| किसी और दिन अगर वह चाय को इस तरह सुड़ुक के पी रहे होते तो उनकी तगड़ी क्लास लग गयी होती, लेकिन आज न तो उनको होश था समाचार के आगे और न ही श्रीमतीजी को उनके सुड़कने की परवाह|
थोड़ी देर बाद ही शर्माजी ने विजयी भाव से श्रीमतीजी को देखा और हँसते हुए बोले "बहुत अच्छा किया सरकार ने, मजा आ गया| अब अपने पास तो कोई नोट है नहीं तो क्या चिंता"| लेकिन श्रीमतीजी का चेहरा गंभीर बना रहा तो उनको याद आया कि अभी तक तो उनको वजह पता ही नहीं चली आज के इस व्यवहार परिवर्तन की|
"क्या हुआ, कुछ बताती क्यों नहीं, क्या बात है", उन्होंने श्रीमतीजी को गौर से देखते हुए कहा|
"अच्छा ये बताओ, क्या सच में ये वाले नोट बेकार हो गए हैं, अब इनसे कुछ भी नहीं ख़रीदा जा सकता", श्रीमतीजी के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ़ दिख रही थी|
"नहीं, बेकार क्यों होंगे, उनको बदला तो जा ही सकता है| खैर तुमको क्या चिंता, कौन सा हम लोगों के पास ये नोट पड़े हुए हैं", शर्माजी ने प्यार से समझाया|
"लेकिन जिसका बैंक में खाता भी न हो तो उनका क्या होगा", श्रीमतीजी ने उनकी बात को अनसुना करते हुए फिर से पूछा|
"अब तुम्हारे पास न तो ऐसे नोट हैं और न ही बैंक खाता, तो फिर ऐसे सवाल क्यों पूछ रही हो", शर्माजी ने एक बार फिर समझाया|
श्रीमतीजी ने इस बार बहुत मायूसी से शर्माजी को देखा और धीरे से बोलीं "मेरे पास भी कुछ नोट रखे हैं"|
शर्माजी को तो जैसे बिजली का झटका लगा, अभी इसी महीने कई बार पैसे के लिए उनकी जम के तू तू मैं मैं हो चुकी थी श्रीमतीजी से| लगभग रोज शाम को ऑफिस से लौटने के बाद एक बार उनको श्रीमतीजी से सुनने को मिल ही जाता था कि जहर खाने के लिए भी पैसे नहीं बचे हैं, पता नहीं कब आपकी तनख्वाह बढ़ेगी| अगर गलती से भी उन्होंने कभी कुछ पैसे मांग लिए तो तूफ़ान आ जाता था| ऐसे में आज यह सुनकर कि श्रीमतीजी ने भी कुछ नोट बचा के रखे हैं, उनको बहुत हैरत हुई|
"अरे बचा के रखे थे तो मांगने पर इतनी खरी खोटी क्यों सुनाती थी| दे दिया होता तो आज ये नौबत तो नहीं आती", शर्माजी ने थोड़ा गुस्सा दिखाया|
"तुमको क्या, पूरा घर तो मुझे ही देखना होता है, तुम तो कुछ रुपल्ली पकड़ा कर चल देते हो", श्रीमतीजी के आवाज में पुराना अंदाज आया ही था कि उनको लगा ये वक़्त गुस्से का नहीं है तो संभल गयीं|
"अब घर परिवार के लिए ही तो बचाती हूँ, कौन सा अपने मायके भेजने के लिए बचत की थी", श्रीमतीजी का लहजा अब नरम पड़ गया था|
"कोई बात नहीं, मैं अपने खाते में जमा करा दूंगा| जो दो चार हों, दे देना मुझे", शर्माजी को भी थोड़ी प्रसन्नता होने लगी कि इसी बहाने ही सही, कुछ तो उनके खाते में भी जमा हो जाएंगे|
"लाती हूँ अभी", कहते हुए श्रीमतीजी बेड रूम में घुस गयीं| शर्माजी भी खबरों में डूब गए, एंकर लगातार कहता जा रहा था कि काले धन पर जबरदस्त प्रहार किया है सरकार ने|
इतने में श्रीमतीजी ने उनके सामने अपने झोला उलट दिया, शर्माजी की ऑंखें फटी की फटी रह गयी| कुछ हजार के और पांच सौ के इतने नोट तो उन्होंने अपनी जिंदगी में भी एक साथ नहीं देखे थे| तभी टी वी पर उनको एंकर की आवाज़ सुनाई पड़ी "सरकार के इस मास्टर स्ट्रोक से सारा काला धन बाहर निकल जायेगा", श्रीमतीजी कुछ हैरान और कुछ परेशान उनके सामने खड़ी थीं और वो सोच में पड़ गए कि अब इस धन को वह क्या कहें|
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on November 15, 2016 at 5:55pm

शुक्रिया आ शेख भाई, सही फ़रमाया आपने, साझा धन

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 15, 2016 at 5:28pm
वर्तमान परिदृश्य पर सच्चे अनुभव बाख़ूबी साझा करती बढ़िया प्रस्तुति के लिए तहे दिल से मुबारकबाद मोहतरम जनाब विनय कुमार सिंह जी। पति-पत्नी का सहारा साझा-धन ही कह सकते हैं न इसे!
Comment by विनय कुमार on November 12, 2016 at 5:30pm

यह एक व्यंग है आ समर कबीर साहब, शुक्रिया आपका 

Comment by Samar kabeer on November 12, 2016 at 5:21pm
जनाब विनय कुमार सिंह जी आदाब,क्या ये कहानी है,या लघुकथा ?
बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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