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ग़ज़ल (उदास रात के साये में ख़्वाब पहने हुए)

उदास रात के साये में ख़्वाब पहने हुए 

निकल पड़ा है मुसाफ़िर अज़ाब पहने हुए

डरा सकेगी नहीं जुगनुओं को तारीकी 

निकल पड़े हैं वो तो आफ़ताब पहने हुए

नज़र-नज़र से मिली और खा गये धोक़ा 

वो दिलफ़रेब मिली थी नक़ाब पहने हुए

यहाँ उदास मैं भी हूँ, वहाँ उदास वो भी है 

बहार भी है ख़िज़ां के गुलाब पहने हुए

लो आ गया मिरा महबूब फिर ख़्यालों में 

''सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए''

मौलिक व अप्रकाशित 

........दीपक कुमार

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Comment

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Comment by दीपक कुमार on November 18, 2016 at 2:25pm

 बहुत-बहुत शुक्रिया समर कबीर साहब। मुआफ़ी चाहूँगा कि मैंने ग़ज़ल के साथ अरकन नहीं लिखा। ये ग़ज़ल मैंने बहरे-मुजतस (जिसे हिन्दी में विचलितमना छंद कहते हैं) में कही है । इसका अरकान 1 2 1 2       1 1 2 2      1 2 1 2         1 1 2 / 2 2 / 1 1 2 1 / 2 2 1  है।

उत्कर्ष/अस्ताचल में आवश्यकतानुसार 112/22/1121/221 में से कोई एक अदल-बदल कर लाये जा सकते हैं। मेरे ख़याल से सारे शेर मीटर में हैं। यदि शेर मीटर में न हों तो कृप्या बतायें कहाँ पर मीटर टूट रही है।

Comment by दीपक कुमार on November 18, 2016 at 1:57pm

धन्यवाद बृजेश भाई

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 12, 2016 at 8:29pm
खूबसूरत
Comment by Samar kabeer on November 12, 2016 at 5:17pm
जनाब दीपक कुमार जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
दूसरा शैर लय में नहीं है,इसी तरह चौथे शैर का ऊला मिसरा भी लय में नहीं है,देखियेगा ।
ग़ज़ल के साथ आपने अरकान भी नहीं लिखे जो इस मंच का नियम है ।

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