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हम उनके बिना भी हुए कब अकेले (ग़ज़ल)

बह्र :  १२२ १२२ १२२ १२२

 

सनम छोड़ जाते हैं यादों के मेले

हम उनके बिना भी रहे कब अकेले

 

मैं समझाऊँ कैसे ये चारागरों को

उन्हें छू के हो जाते मीठे करेले

 

रहे यूँ ही नफ़रत गिराती नये बम

न कम कर सकेगी मुहब्बत के रेले

 

मैं कितना भी कह लूँ ये नाज़ुक बड़ा है

सनम बेरहम दिल से खेले तो खेले

 

इन्हें दे नये अर्थ नन्हीं शरारत

वगरना निरर्थक हैं जग के झमेले

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 4, 2016 at 1:10pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय गिरिराज जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 4, 2016 at 1:10pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया निधि जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 2, 2016 at 10:18am

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , बहुत बढिया गज़ल कही है , सभी अशआर खूब हुये हैं , बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by Nidhi Agrawal on November 30, 2016 at 11:46am

ग़ज़ल अच्छी है जनाब.. लेकिन दूसरा शेर पढ़ कर हंसी आ गयी .. एक संजीदा ग़ज़ल में भी ह्यूमर आ सकता है ये इस ग़ज़ल के माध्यम से समझा .. पर साहित्यिक दृष्टी से ये सही है या नहीं ये ज्ञानी लोग बताएं 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 28, 2016 at 7:54pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 28, 2016 at 7:54pm

बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय मिथिलेश जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 28, 2016 at 7:54pm

बहुत बहुत शुक्रिया जनाब तस्दीक साहब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 28, 2016 at 7:53pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर साहब। आपके सुझाव के लिए अभारी हू‍ँ। इसे ठीक करता हू‍ँ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 28, 2016 at 11:33am

बहुत खूब ...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 27, 2016 at 11:23pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र सिंह जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. शेर-दर-शेर, दाद-ओ-मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. "मुए" को "अमां" किया जा सकता है क्या? सादर 

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