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नयी ग़ज़ल - रहता नहीं

नयी ग़ज़ल 

बह्र - २१२२ २१२२ २१२

अजनबी हमसे सदा रहता नहीं 
चाहता है फिर गिला रहता नहीं

वो जफ़ा कर क्यों खफा तुमसे हुआ 
बा वफ़ा साथी जुदा रहता नहीं

आईना टूटा तभी तो रो दिये 
नूर आँखों का बुझा रहता नहीं

दोस्त तेरा प्यार मुझ पे इस कदर 
टूटकर भी वो ख़फा रहता नहीं

तू मना ले चाह कर भी ऐ “निधी”
नाखुशी से वो ख़ुदा रहता नहीं

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on December 3, 2016 at 9:56am

आदरणीया निधि जी , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने , दिली मुबारकबाद कुबूल कीजिये ।

Comment by vijay nikore on December 2, 2016 at 3:41pm

खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई

Comment by Shyam Narain Verma on December 1, 2016 at 11:36am
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें ।
Comment by Samar kabeer on November 30, 2016 at 5:04pm
मोहतरमा निधि अग्रवाल जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।

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