2122 – 1122 – 1122 - 22
केश विन्यास की मुखड़े पे घटा उतरी है
या कि आकाश से व्याकुल सी निशा उतरी है
इस तरह आज वो आई मेरे आलिंगन में
जैसे सपनों से कोई प्रेम-कथा उतरी है
ऐसे उतरो मेरे कोमल से हृदय में प्रियतम
जैसे कविता की सुहानी सी कला उतरी है
मेरे विश्वास के हर घाव की संबल जैसे
तेरे नयनों से जो पीड़ा की दवा उतरी है
पीर ने बुद्धि को कुंदन-सा तपाया होगा
तब कहीं जाके हृदय में भी दया उतरी है
पाप से आप जो दिन रात नहाये होंगे
इसलिए विष से भरी प्रेम-सुधा उतरी है
आज फिर से किसी शासक ने ठहाका मारा
आज फिर से किसी निर्धन की त्वचा उतरी है
आजकल पक्ष व प्रतिपक्ष में हैं घर आँगन
घर में दिल्ली की ही विषयुक्त हवा उतरी है
घर प्रकाशित करो दीपक से, ये आशा छोड़ो
चाँदनी यूं कभी अम्बर से भला उतरी है
फिर कहीं पर कई शम्बूक के वध निश्चित हैं
फिर कहीं अग्नि में ‘मिथिलेश’ सुता उतरी है
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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Comment
आदरणीय विजय निकोर सर, पुनः इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद.
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर.
आदरणीय राम आश्रय जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर.
अति सुंदर अभिव्यक्ति बहुत बहुत बधाई l
श्री मान जी अति सुंदर अभिव्यक्ति है आपको बहुत बहुत बधाई स्वीकार हो
आदरणीय राम आश्रय जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर.
आदरणीय विजय निकोर सर, पुनः इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर.
आदरणीय इन्द्र विद्या वाचस्पति तिवारी जी, आपको ग़ज़ल पसंद आई जानकार ख़ुशी हुई. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर.
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति आपने शब्दों में ब्यान किया है आपको बहुत बहुत बधाई स्वीकार हो
आज पुन; आपकी यह सुन्दर गज़ल पढ़ी, और आननद आया। रचना वह जो इसी तरह बार-बार आनन्द दे जाए। वाह!
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