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ग़ज़ल- ख़त मेरा दिल से लगाकर देखिये

2122 2122 212

चाँद को महफ़िल में आकर देखिये ।
इक ग़ज़ल मेरी सुनाकर देखिये ।।

गर मिटानी हैं जिगर की ख्वाहिशें ।
इस तरह मत छुप छुपाकर देखिये ।।

ये रक़ीबों का नगर है मान लें ।
इक रपट मेरी लिखाकर देखिये ।।

हुस्न पर पर्दा मुनासिब है नहीं ।
बज़्म में चिलमन उठाकर देखिये ।।

क्यों फ़िदा हैं लोग शायद कुछ तो है ।
आइने में हुस्न जाकर देखिये ।।

हैं हवाएँ गर्म कुछ् बेचैन मन ।
तिश्नगी थोड़ी बुझा कर देखिये ।।

आप के कहने से तौबा कर लिया ।
मैकदा से रूह लाकर देखिये ।।

फेसबुक से यूँ हटाना बस में था ।
अब जरा दिल से हटाकर देखिये ।।

सिर्फ इलज़ामो का चलता कारवाँ ।
फर्ज़ कुछ अपना निभाकर देखिये ।।

आप मेरे इश्क़ के काबिल तो हैं ।
हो सके तो दिल मिलाकर देखिये ।।

दीन हो जाए न ये बर्बाद अब ।
मत हमें नज़रें झुकाकर देखिये ।।

कत्ल होने का इरादा था मेरा ।
बेवज़ह मत आज़माकर देखिये ।।

धड़कने देंगी गवाही फ़िक्र की ।
खत मेरा दिल से लगाकर देखिये ।।

जख़्म का होता कहाँ मुझपर असर ।
तीर जितने हों चलाकर देखिये ।।

ताक में बैठे सभी ओले यहाँ ।
दम अगर है सर मुड़ाकर देखिये ।।

दर्द ये काफ़ूर हो जाए मिरा ।
कुछ रहम में मुस्कुरा कर देखिये ।।

-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on December 28, 2016 at 3:31pm
"मक़्ते पर और परिश्रम अपेक्षित है"
जनाब डॉ.गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,इस ग़ज़ल में मक़्ता तो है ही नहीं ?ग़ज़ल के आख़री शैर को आप मक़्ता कह रहे हैं,आपकी जानकारी के लिये बतादूँ कि मक़्ता उस शैर को कहते हैं जिसमें शाइर अपना तख़ल्लुस इस्तेमाल करता है ।
Comment by Samar kabeer on December 28, 2016 at 3:22pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
सातवें शैर में "तौबा"स्त्रीलिंग है ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on December 27, 2016 at 9:43pm
आ0 गोपाल नारायण सर आपकी सलाह महत्वपूर्ण है । अमल करूँगा । सादर नमन ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 27, 2016 at 9:29pm

आ० नवीन जी , बढ़िया गजल हुयी है . आपसे एक गुजारिश है बहुत बड़ी गजल न लिखें . आप उसी रदीफ़ में दो  या तीन गजले लिख  सकते हैं  अधिक  शेर होने पर मेहनत बंट जाती है . मुझे आपकी गजल अच्छी लगी . मक्ते  पर और परिश्रम अपेक्षित है . सादर .

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