उफ़! करो कोई न हलचल,
शांत सोया है यहाँ जल ।
नींद गहरी, स्वप्न बिखरे आ रहे जिसमें निरंतर।
लुप्त सी है चेतना, दोनों दृगों पर है पलस्तर।
वेदना, संत्रास क्या हैं? कब रही परिचित प्रजा यह?
क्या विधानों में, न चिंता, बस समझते हैं ध्वजा यह।
कौन, क्या, कैसे करे? जब,
हो स्वयं निरुपाय-कौशल।
पीर सहना आदतन, आनंद लेते हैं उसी में।
विष भरा जिस पात्र में मकरंद लेते हैं उसी में।
सूर्य के उगने का रूपक, क्या तनिक भी ज्ञात होगा?
क्रांति की जलती मशालों से इन्हें आघात होगा ।
बस बनाते रह गए,
सब बात या बातों में अटकल।
क्या सही है, क्या गलत है? इस विषय पर मौन जनता।
शोक हैं अनिवार्यता, उस बात पर त्यौहार मनता।
कौन यह स्वीकार करता- यह अचेतन की दशा है।
अंध श्रद्धा से भरा मन, एक व्यसनी का नशा है।
कब भला पहचान पाए,
कौन दूषित, कौन निर्मल?
लोक उन्मुख कौन कितने, लोक हन्ता कौन कितने?
क्या प्रकृति समझो तनिक, वाचाल कितने मौन कितने?
सत्य की अर्थी उठाकर कौन आया है सदन में?
भेद क्या समझो तथागत और निर्मम दश-वदन में।
चल रहा क्रंदन युगों से,
जाग रे! इक बार पागल।
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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Comment
मुहतरम जनाब मिथिलेश साहिब , बहुत ही सुन्दर गीत हुआ है , मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
आदरणीय सुरेन्द्र जी, आपकी मुक्तकंठ प्रशंसा आश्वस्तकारी है. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर
आदरणीय समर कबीर जी, आपकी प्रशंसा से आश्वस्त हुआ हूँ. आप जैसे गुनीजन से दाद मिलना, मेरे लिए बड़ी बात है. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद.
आदरणीय आशुतोष जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. जहाँ तक गीत के शिल्प की बात है तो मैंने इस गीत में बह्र-ए-रमल को आधार बनाकर प्रयास किया है जो हिंदी के गीतिका छंद के निकट है. सादर.
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