देर तक .....
देर तक
मैं मयंक को
देखती रही
वो वैसा ही था
जैसा तुम्हारे जाने से
पहले था
बस
झील की लहरों पे
वो उदास अकेला
तैर रहा था
देर तक
मैं उस शिला पर
बैठी रही
जहां हम दोनों के
स्पर्शों ने सांसें ली थीं
शिला अब भी वैसी ही थी
जैसी
तुम्हारे जाने से पहले थी
बस
मैं
और थे मेरी देह में
समाहित
तुम्हारे अबोले स्पर्श
देर तक
मैं अपने अधरों पे
तुम्हारे अधरों की
कंपन जीती रही
अपनी पलकों पे
तुम्हारी साँसों की गर्माहट
महसूस करती रही
सांझ की बेला में
तुम्हारी आहटों को जोहते
मैं
वेणी में गज़रा भी
वैसे ही लगाती रही
जैसा तुम्हारे जाने से पहले
लगाती थी
बस अब
किसी की मुहब्बत
वेणी के गज़रे से खेलकर
उसे बिखेरती नहीं
उसकी सुगंध भी
शायद
किसी की कमी से
महकना भूल गयी
देखो !
देर तक
इस देर को
अब
देर न रहने देना
तुम्हारी कसम
जी न पाऊंगी
मैं
अब
तुम बिन
देर तक
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय मिथिलेश जी प्रस्तुति को अपना आत्मीय स्नेह देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब प्रस्तुति के भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय सुशील सरना सर, बढ़िया भावाभिव्यक्ति हुई है. हार्दिक बधाई. सादर
आदरणीय सुशील भाई , विरह का दर्द और मिलन की खातिर चाटपटाहट दोंनो खूब शब्द पाये हैं । आपको इस कविता के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति को अपनी स्नेह बरखा से पल्लवित करने का हार्दिक आभार।
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