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फँसा रहे बशर सदा गुनाह ओ सवाब में
हयात झूलती सदा सराब में हुबाब में
बची हुई अभी तलक महक किसी गुलाब में
बता रही हैं अस्थियाँ छुपी हुई किताब में
जहाँ जुदा हुए कभी रुके वहीं सवाल हैं
गुजर गई है जिन्दगी लिखूँ मैं क्या जबाब में
लिखें जो ताब पर ग़ज़ल सुखनवरों की बात अलग
वगरना लोग देखते हैं आग आफ़ताब में
फ़िज़ूल में ही अब्र ये छुपा रहा है चाँद को
जमाल हुस्न का कभी न छुप सका हिजाब में
नजर लगे न मनचलों की गुलसिताँ में सोचकर
सहम सहम निकल रही कली कली नकाब में
उसूल क्या है जाम का या मयकदों की शाम का
उदास हों या खुश सदा ही डूबते शराब में
-------- मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० नवल किशोर सोनी जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से बहुत बहुत शुक्रिया आपका .
"नजर लगे न मनचलों की गुलसिताँ में सोचकर
सहम सहम निकल रही कली कली नकाब में " bhut khub Rajesh Kumari ji. bdhai ho.
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