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मेरी वफा का तुम्हें कुछ ख़याल हो के न हो
इनायतों का खुदा की कमाल हो के न हो
मैं हो गई हूँ मुहब्बत में क्या से क्या ए सनम
मेरी तरह से तुम्हारा ये हाल हो के न हो
बिना पढ़े ही निगाहों से दे दिया है जबाब
लिखा जो खत में वो मेरा सवाल हो के न हो
गुलाब से ही मुहब्बत करे ज़माना यहाँ
शबाब उसमे है पूरा जमाल हो के न हो
कमाँ से कितने उछाले हैं तीर भँवरे यहाँ
ये हाथ में है गुलों के विसाल हो के न हो
नजर नज़र से मिली सुखरू हुई वो कली
हथेलियों ने मला वो गुलाल हो के न हो
ग़ज़ल लिखी है लबों से तुम्हारे दिल पे सनम
तुम्हारे दिल को भले अब मलाल हो के न हो
------मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
मुझको आपकी एक और अच्छी गज़ल की प्रतीक्षा रहती है.... बहुत ही शानदार गज़ल के लिए बधाई, आदरणीया राजेश जी
आद० जयनित कुमार जी आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया
आद० दिनेश कुमार जी आपको ग़ज़ल अच्छी लगी बहुत बहुत आभार आपका .आपने सही कहा भला मैं बुरा क्यूँ मानूँगी मैंने भी इस तरफ ध्यान दिया तो आपकी बात सही लगी मूल पोस्ट में शब्द बदल भी दिए हैं यहाँ भी एडिट कर दूँगी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
प्रिय राहिला जी आपको ये ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हो गया तहे दिल से आभार आपका .
आद० बृजेश कुमार जी आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया .
इसी बह्र पर जनाब शफक जी का शेर --
वो जिन्दगी का सुकूं पा गया अमान में है
जो अपनी माँ की दुआओं के सायबान में है
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