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बह्र-ए-मज़ारअ मुसम्मिन अखरब मकफूफ़
यूँ भीड़ में जनाब पुकारा न कीजिये
रुसवा हमें यूँ आप दुबारा न कीजिये
बिलकुल खुली किताब है चेहरा ये आपका
हर रोज पढ़ रहे हैं इशारा न कीजिये
नाराज हो न जाएँ सितारे औ आसमाँ
यूँ चाँद का नकाब उतारा न कीजिये
मौजे मचल रही हैं तुम्हे देख देख कर
गर पाँव चूम लें तो किनारा न कीजिये
गुलशन उदास होगा परेशान डालियाँ
यूँ रास्ते गुलों से सँवारा न कीजिये
अपनी हमें न फिक्र जमाने की फिक्र है
बेवक्त इन्तजार हमारा न कीजिये
गुस्ताख़ दिल कहीं न भुला दे रिवायतें
जज्बात यूँ हमारे उभारा न कीजिये
--मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० डॉ० गोपाल भाई जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई लिखना कामयाब हुआ तहे दिल से आभारी हूँ .
आद० नरेन्द्र सिंह जी ,आपका बहुत बहुत शुक्रिया .
आ० दीदी , बहुत ही उम्दा और पुरअसर गजल ,हर शेर बेहतरीन . सादर .
खूब सुन्दर रचना
आदरणीय रवि प्रभाकर जी ,ग़ज़ल पर आपकी शिरकत और दाद का दिल से स्वागत है आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ बहुत बहुत शुक्रिया आपका .
बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही आदरणीय राजेश कुमारी जी । एक एक शे'र काबिले तारीफ़। मुबारकबाद स्वीकार करें ।
बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही आदरणीय राजेश कुमारी जी । एक एक शे'र काबिले तारीफ़। मुबारकबाद स्वीकार करें ।
आद० बासुदेव अग्रवाल जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपकी उत्साहित करती इस प्रतिक्रिया हेतु तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ सादर .
आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी ग़ज़ल पर आपकी दाद मिली लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभारी हूँ .
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