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अपनाया मुहब्बत में पतिंगो ने क़जा को
बदनाम यूँ करते न कभी शम्अ वफ़ा को
है जह्र पियाले में ये मीरा को पता था
बे खौफ़ मगर दिल से लगाया था सजा को
जो लोग सदाकत से करें पाक मुहब्बत
वो बीच में लाते न कभी अपनी अना को
आँधी का नहीं खौफ़ चरागों को भला फिर
समझेंगे उसे क्या जरा ये कह दो हवा को
देखी वो जवाँ झील लिए नूर की गागर
लो चाँद दीवाना चला अब छोड़ हया को
जब रोज जलाता रहे खुर्शीद तपिश से
वो फूल तरसते हैं सदा बाद-ए-सबा को
सजदे में बिछाए हैं बगीचों ने सितारे
रोका न करो अब्र यूँ सूरज की जिया को
दुनिया ये मुहब्बत पे भरोसा न करेगी
तोड़ा न करो यार कभी रस्मे वफा को
---------राजेश कुमारी ‘राज’
Comment
आद० गिरिराज जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लेखन कर्म सार्थक हुआ दिल से आभारी हूँ सादर .
आदरणीया राजेश जी बहुत अच्छी गज़ल कही है आपने , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें .. , ।
आद० डॉ० आशुतोष जी ,ग़ज़ल पर आपकी उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया प्राप्त हुई जिसके लिए दिल से शुक्रगुजार हूँ बहुत बहुत आभार .
आद० महेंद्र कुमार जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया .
आद० indravidyavachaspatitiwari जी आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया .
आ0 राजेश कुमारी जी आपकी गजल ने तो दीवानगी में चांद की हया ही छुड़ादी। वाह!वाह! क्या कहने। इतनी अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाईयां।
आद० सुरेन्द्र नाथ भैया जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से बहुत बहुत शुक्रगुजार हूँ .आद० समर भाई जी ने उचित इस्स्लाह दी है बस अब इसको संशोधित करके दुबार पब्लिश करवाती हूँ |
आद० समर भाई जी ,आप ने उन बातों को इंगित किया है जो मेरे दिमाग में ही नहीं आई हम तो हमेशा पतंगे ही उच्चारित करते आये हैं ये आप से ही पता चला की सही लफ्ज़ पतिंगे होता है दूसरा ..दिल से लगाई थी सजा को यहाँ बहुत महीन अंतर आपके बताने पर दिखाई दिया जो ठीक लगा तीसरे ---"जब रोज़ जलाता रहे ख़ुर्शीद तपिश से
वो फूल तरस्ते हैं सदा बाद-ए-सबा को"---ये शेर तो निखर उठा आपके सुझाव से .भाई जी इस मार्ग दर्शन की बेहद शुक्रगुजार हूँ इस ग़ज़ल को मैंने बहुत वक़्त दिया था लोगों ने बहुत सराहा भी किन्तु इन महीन बातों पर आपने ही गौर किया |लेकिन अब जाके संतुष्टि हुई इसे संशोधित करके दुबारा अप्रूव करवाती हूँ .बहुत बहुत आभार आपका
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