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समझ पाये जो ख़ुद के पार आये,
तेरी दुनिया में हम बेकार आये.
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बहन माँ बाप बीवी दोस्त बच्चे,
कहानी थी.... कई क़िरदार आये.
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क़दम रखते ही दीवारें उठी थीं,
सफ़र में मरहले दुश्वार आये.
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शिकस्ता दिल बिख़र जायेगा मेरा,
वहाँ से अब अगर इनकार आये.
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उडाये थे कई क़ासिद कबूतर,
मगर वापस फ़क़त दो चार आये.
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समुन्दर की अनाएँ गर्क़ कर दूँ,
मेरे हाथों में गर पतवार आये.
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अगरचे लोग वो सस्ते नहीं थे,
जो बिकने को सर-ए-बाज़ार आये.
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तेरी यादों से छुट्टी कब मिलेगी,
कभी तो ज़ह’न को इतवार आये.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. नीलम जी
शुक्रिया आ. आमोद जी
आदरणीय नूर साहब, बहुत ही सुन्दर गजल के लिए बधाई ।
शुक्रिया आ. बैजनाथ शर्मा जी
शुक्रिया आ. मोहित जी
आदरणीय नूर साहेब.......बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है ....बहुत बहुत बधाई आपको
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