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ये तमाशा तो मेरे ज़ह’न के अन्दर निकला, ग़ज़ल नूर की

गा ल गा गा (ललगागा) / लल गागा/ ललगागा / गा गा (ललगा) 
.
ये तमाशा तो मेरे ज़ह’न के अन्दर निकला,
मैं बशर मैं ही ख़ुदा मैं ही पयम्बर निकला.
.
ये ज़मीं चाँद सितारे ये ख़ला.... सारा जहान, 
वुसअत-ए-फ़िक्र से मेरी ज़रा कमतर निकला.

.
संग-दिल होता जो मैं आप भी कुछ पा जाते,
क्या मेरी राख़ से पिघला हुआ पत्थर निकला?
 
.
सोचता था कि मेरे अश्क हैं क्यूँ कर नमकीन,
ज़ह’न की थाह में गुम-गश्ता समुन्दर निकला.
.  
धडकनों में हुई महसूस कोई तेज़ चुभन,
दिल टटोला तो किसी याद का नश्तर निकला.
.
“नूर जी” ज़ह’न की आज़ादी प इतराते रहे,
पर अना शाह रही, ज़ह’न तो नौकर निकला.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 12, 2017 at 6:59pm

शुक्रिया आ. अनुराग जी ..
..
भी तब  सही होता अगर कोई और भी रेफरेंस होता ...
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 12, 2017 at 6:57pm

शुक्रिया आ. समर सर 

Comment by Samar kabeer on April 12, 2017 at 6:29pm
जी,अब ठीक है ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 12, 2017 at 4:22pm

क्या यूँ ठीक रहेगा...
.
ये ज़मीं चाँद सितारों से बना तेरा  जहान 
वुसअत-ए-फ़िक्र से मेरी ज़रा कमतर निकला.

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 12, 2017 at 4:20pm

शुक्रिया आ. समर सर...
साहित्य का छात्र न होने के कारण इतनी बारीकियाँ अक्सर नहीं जान पाता हूँ ...
आप के बताए अनुसार सरा दुरुस्त कर पेश करता हूँ ..
सादर 

Comment by Samar kabeer on April 12, 2017 at 2:57pm
जनाब निलेश'नूर'साहिब आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
'ये ज़मीं, चाँद,सितारे ये ख़ला सारा जहान
वुसअत-ए-फ़िक्र से मेरी ज़रा कमतर निकला'
इस शैर का ऊला मिसरा बहुवचन में हो गया है,इस लिहाज़ से रदीफ़ काम नहीं कर रही है,देखियेगा ।

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