लम्हों की कैद में ......
लम्हे
जो शिलाओं पे गुजारे
पाषाण हो गए
स्पर्श
कम्पित देह के
विरह-निशा के
प्राण हो गए
शशांक
अवसन्न सा
मूक दर्शक बना
झील की सतह पर बैठ
काल की निष्ठुरता
देखता रहा
वो
देखता रहा
शिलाओं पर झरे हुए
स्वप्न पराग कणों को
वो
देखता रहा
संयोग वियोग की घाटियों में
विलीन होती
पगडंडियों को
जिनपर
मधुपलों की सुधियाँ
अबोली श्वासों सी
अपना अस्तित्व
बनाये हुए
न होते हुए भी
जीवित थीं
वो
देखता रहा
वर्तमान से लिपटे
उस निस्पंद पल को
जो शायद
शिला का प्राण बन
किसी अदेह को
देह सी
अनंतता का
वरदान दे
काल की निष्ठुरता का
उपहास
और लम्हों की कैद में ज़िंदा
जीवन सत्य को
आलोकित कर रहा था
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशसित
Comment
बहोत खूब
आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब प्रस्तुति के भावों को अपनी स्वीकृति देती प्रशंसा से अलंकृत करने का दिल से आभार। सर प्राग गूगल टंकण त्रुटि है वास्तव में शब्द पराग ही है। मैं इसे अभी ठीक कर पुनः प्रेषित करता हूँ। आपका इस हेतु दिल की असीम गहराईयों से हार्दिक आभार।
आदरणीय मो. आरिफ़ साहिब रचना में निहित भावों को अपनी आत्मीय स्वीकृति से मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय सुशील भाई , बहुत खूबसूरत कविता रची है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ।
पराग को प्राग भी कहते हैं या ये कोई और ही शब्द है ?
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