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//उठाके बोझ ज़माने का तेरी चाहत में
शऊर-ओ-फ़िक्र की सरहद को पार करना था
वो मेरी तेग़ से मरता तो क्या मज़ा आता
उसी के तीर से उसका शिकार करना था//
सभी शेर बहुत अच्छे हैं, और यह और भी मन-पसंद हैं। दिल से बधाई, समर जी।
हमसे पूछो कि ग़ज़ल मांगती है कितना लहू
सब समझते है ये धन्धा बड़े आराम का है
-राहत इन्दौरी
हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है,ग़ज़ल का फ़न क्या
चन्द लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाये
-जाँ निसार अख़्तर
लोग आसान समझते हैं ग़ज़ल गोई को
दिल का शीराज़ा बिखरता है ग़ज़ल कहने में
-नरेश कुमार शाद
हुसूल-ए-इल्म की ख़ातिर भटकते फिरते हैं
ग़ज़ल का फ़न जो हमें बा वक़ार करना था
-समर कबीर
वाह! यह सिर्फ ओबीओ पर ही संभव है. जय-जय.
//ये एक बार नहीं बार बार करना था, बग़ैर नाव के दरिया को पार करना था// वाह! क्या ख़ूब शेर कहा है आपने आदरणीय समर कबीर सर. इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाई प्रेषित है. सादर.
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