122/122/122/12
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नुमायाँ है तू अपनी गुफ़्तार में,
सफ़ाई न दे हम को बेकार में.
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फ़क़त एक मिसरे में गीता सुनो
है संसार मुझ में, मैं संसार में.
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ये तामीर-ए-क़ुदरत भी कुछ कम नहीं
हिफ़ाज़त से रक्खा है गुल, ख़ार में.
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कहानी को अंजाम होने तो दो
सभी लौट आयेंगे किरदार में.
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ऐ ज़िल्ल-ए-ईलाही!! ये इन्साफ़ हो,
कि चुनवा दो शैख़ू को दीवार में.
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तू शिद्दत से माथा पटक कर तो देख
कोई दर निकल आये दीवार में.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद आ. लक्ष्मण धामी जी
धन्यवाद आ. विजय जी
आ. भाई नीलेश जी , एक बेहतरीन गजल से परिचित कराने हेतु हार्दिक बधाई ।
बहुत ही खूबसूरत गज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
शुक्रिया आ. सतविन्द्र जी
शुक्रिया आ. गिरिराज जी
क्या बात है ... अच्छी गज़ल के लिये बधाइयाँ ... आदरणीय नीलेश भाई ।
शुक्रिया आ. बृजेश जी
शुक्रिया आ. समर सर
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