1212 1122 1212 22 (ग़ज़ल कतआ से शुरू है )
किसी की आँख से अश्कों की आशनाई का
किसी जुबान से लफ़्ज़ों की बेवफाई का
सुखनवरों का हुनर है जो ये समझते हैं
भला क्या रिश्ता है कागज से रोशनाई का
जमीन बिछ गई आकाश बन गया कम्बल
बटा ग़िलाफ़ तलक माँ की उस रिजाई का
जहर भी पी गई मीरा जुनून-ए-उल्फत में
न होश था न उसे इल्म जग हँसाई का
लगाम लग गई उसके फिजूल खर्चों पर
गया जो पैसा निकलकर निजी कमाई का
ये जानते हैं सभी बात है ये जग जाहिर
सही से होता न सम्मान घर जमाई का
दिलों में पाप छुपा हो जुबान पर शीरी
असर खुदा पे नहीं होता उस दुहाई का
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० डॉ. आशुतोष जी,आपकी इस होस्लाफ्जाई का शुक्रिया | ये ग़ज़ल मतले से नहीं कता से शुरू हुई है जो मैं लिखना भूल गई थी अब कुछ संशोधन के साथ पुनः प्रकाशित करवा रही हूँ |
आद० गिरिराज जी आपको ग़ज़ल अच्छी लगी आपका बहुत बहुत आभार |
आद० गिरिराज जी आपको ग़ज़ल अच्छी लगी आपका बहुत बहुत आभार |
आद० समर भाई जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपने कता बंद मतले पर ध्यान दिया आपका बहुत बहुत शुक्रिया मैं पोस्ट करते वक़्त ये लिखना भूल गई थी उस वक़्त कहीं जाने की जल्दी में थी | रेशा रेशा वाला मिसरा भी अब दुरस्त कर दिया है इस पर आपकी पुनः राय चाहती हूँ
आद० सुरेन्द्र नाथ भाई जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई बहुत बहुत शुक्रिया |आपकी इस बात का जबाब मैंने नीलेश भैय्या को भी दे दिया है ग़ज़ल मतले से नहीं कता से शुरू है ये मैं लिखना भूल गई थी
आद० गुरप्रीत जी आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका बहुत बहुत शुक्रिया | हाँ इसमें क्या शब्द का वजन गिराया है मेरे ख्याल से तो ये सही है मैंने बहुत ग़ज़लों में एसा देखा है
आद० नीलेश भैय्या ,ग़ज़ल पर बहुत दिनों बाद आना हुआ प्रवास पर थी नेट पर आना मुनासिब नहीं था अब जाकर फ्री हुई हूँ तो आप लोगों की प्रतिक्रियाएं पढ़ रही हूँ| दरअसल ग़ज़ल पोस्ट करने के बाद ही मैं अपनी गलती को याद कर रही थी ये ग़ज़ल क्तआ से शुरू है जो मैं लिखना भूल गई थी इसी लिए आपको मतला अधूरा सा लगा |हाँ रेशा रेशा के विषय में आप सही हैं मैं इसकी जगह ---ग़िलाफ़ तक बटा जो माँ की उस रिजाई का कर रही हूँ आपका बहुत बहुत आभार भैय्या
आदरनीया राजेश जी , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है , बधाइयाँ स्वीकार करें । आदरनीय समर भाई जी की बात सही है , खयाल कीजियेगा ।
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