एक दो तीन- - - एक दो तीन
फिर अनगिन
मन्डराती रहीं चीलें
घेरा बनाए
आतंक के साएँ में
चिंची-चिंची-चिंची
पंख-विहीन |
एक दो तीन- - -
फुदकी इधर से
फुदकी उधर से
घुस गई झाड़ी में
पंजों के डर से
जिजीविषा थी जिन्दा
करती क्या दीन !
एक दो तीन- - -
झाड़ी में पहले से
कुंडली लगाए
बैठे थे विषदंत
घात लगाए
टूट पड़े उस पे
दंत अनगिन | एक दो तीन- - -
प्राणों को खोकर
पंखों को पाकर
चिड़िया पूछती है
पंख फड़फड़ा कर
किन चोंचों में हैं
आज़ादी के दिन |
एक दो तीन- - - सोमेश कुमार(मौलिक एवं अप्रकाशित )
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शुक्रिया कृपया ऐसे ही अपने स्नेह एवं मार्गदर्शन देते रहें
सविनित
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