लल्ला गया विदेश
© बसंत कुमार शर्मा
जाने क्यों अपनी धरती का,
जमा नहीं परिवेश.
ताक रही दरवाजा अम्मा,
लल्ला गया विदेश.
खेत मढैया बिका सभी कुछ,
हैं जेबें खाली.
बैठी चकिया पीस रही है,
घर छोटी लाली.
बिना फीस के विद्यालय में,
मिला न उसे प्रवेश
नई बहुरिया आई घर में,
स्वप्न नये पाले.
दिखे यहाँ तो हर कोने में,
मकड़ी के जाले.
जाने कैसे कब सुलझेंगे,
उलझ गए हैं केश
बुधिया के हुक्के की गुड़गुड़,
कहे कथा न्यारी.
कौन समझ पाया है उसकी,
क्या है बीमारी.
सूखी हुई पसुरियाँ लगती,
पुरातत्व अवशेष.
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय indravidyavachaspatitiwari जी ह्रदय से आभार आपका
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी , आप बिलकुल सही हैं, आपने रचना को समय देकर प्रोत्साहित किया, ह्रदय से आभार आपका
आ0 शर्मा जी आपके इस कविता ने समयोचित बात को संुदर ढंग से रखा है। आपको हार्दिक बधाई।
आ० यदि मैं सही हूँ तो आपनी सरसी छंद में सुन्दर गीत रचना की है आपको बहुत बहुत बधाई .
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