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लल्ला गया विदेश

© बसंत कुमार शर्मा

 

जाने क्यों अपनी धरती का,

जमा नहीं परिवेश.

ताक रही दरवाजा अम्मा,

लल्ला गया  विदेश.

 

खेत मढैया बिका सभी कुछ,

हैं जेबें  खाली.

बैठी चकिया पीस रही है,

घर छोटी लाली.

बिना फीस के विद्यालय में,

मिला न उसे प्रवेश

 

नई बहुरिया आई घर में,

स्वप्न नये पाले.

दिखे यहाँ तो हर कोने में,

मकड़ी के जाले.

जाने कैसे कब सुलझेंगे,

उलझ गए हैं केश

 

बुधिया के हुक्के की गुड़गुड़,

कहे कथा न्यारी.

कौन समझ पाया है उसकी,

क्या है बीमारी.

सूखी हुई पसुरियाँ लगती,

पुरातत्व अवशेष.

"मौलिक एवं अप्रकाशित" 

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Comment

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 7, 2017 at 5:09pm

आदरणीय indravidyavachaspatitiwari  जी ह्रदय से आभार आपका 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on June 25, 2017 at 8:51pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी , आप बिलकुल सही हैं, आपने रचना को समय देकर प्रोत्साहित किया, ह्रदय से आभार आपका 

Comment by indravidyavachaspatitiwari on June 25, 2017 at 6:13am

आ0 शर्मा जी आपके इस कविता ने समयोचित बात को संुदर ढंग से रखा है। आपको हार्दिक बधाई।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 23, 2017 at 9:40pm

आ० यदि मैं सही हूँ तो आपनी सरसी छंद में सुन्दर गीत रचना की है आपको बहुत बहुत बधाई .

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